Monday, June 24, 2013

पहाड़ रो रहे हैं .............( पहाड़ो की कहानी , उन्ही की जुबानी )


मैं पहाड़ हूँ , प्रकृति  की खूबसूरती में चार चाँद लगाता हूँ ,
शांत , अटल ,अडिग होकर सब कुछ झेलता हूँ , 
मैं इंसानों की आवश्यकता के लिए सब कुछ देता हूँ, 
फल , लकड़ी , नदियाँ ,  झरने और भी न जाने कितना कुछ देता हूँ , 
यह सब ठीक था , जब तक इंसान लालची न था, 
जितना उसको चाहिए था मुझसे लेता था , 
बदले में उसको कुछ न कहता था , 
हर मौसम की मार खुद ही सहकर यूँ ही खड़ा रहता था ,
मगर अब सब कुछ बदल गया हैं , 
इंसान स्वार्थी हो गया हैं , 
उसने हमारे साथ खिलवाड़ कर दिया हैं , 
हमारे  वस्त्र रुपी पेड़ काट काट कर हमें नंगा कर दिया हैं , 
हमारी धमनियो - नदियों को जहाँ तहां बांध बना कर रोक दिया हैं , 
सीने पर हमारे कंक्रीट के जंगल बना दिया , 
कब तक सहन करता मैं , एक दिन तो सब्र का बाँध मेरा भी टूटना ही था, 
ये तो सिर्फ चेतावनी हैं , इतने से ही इंसान को चेतना हैं , 
अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा , 
मैं भी भरभराकर कर गिर जाऊंगा , 
प्रलय आएगी उस दिन सब जल मग्न हो जायेगा , 
फिर मुझे दोष मत देना क्यूंकि मैं तो हर बार इंसान को चेताती हूँ , 
तेरे जरुरत को तो मैं पूरा कर सकती हूँ मगर लालच के आगे तो मैं भी बेबश हूँ ....
तुझे तय करना हैं की तुझे क्या चाहिए ? 
हमारा साथ या फिर हर बार का हाहाकार ........
मैं उजड़ कर फिर आबाद हो जाऊंगी , 
मगर तेरे वजूद के क्या होगा , सोच कर घबराती हूँ . 

( यह महज कविता नहीं हैं , यह सच्चाई हैं जिसका परिणाम हम अभी पहाड़ो में आये जल सुनामी के रूप में देख चुके हैं ..  हम इंसान अगर अब भी यूँ ही खिलवाड़ करते रहे तो आगे भविष्य क्या होगा ? कल्पना करने से ही रूह काँप उठती हैं )