कभी कुछ क्षण ऐसे भी आ जाते हैं,
शब्दों के भण्डार में अकाल सा पड़ जाता हैं,
कल देखा था एक सड़क पर,
एक दो साल की बिटिया को,
सड़क के किनारे ,
अपनी माँ को पत्तल से खाने खिलाते हुए,
उसकी नन्ही सी उंगलियाँ ,
प्लास्टिक के चम्मच को थामे हुए थी,
थोडा थोडा चावल वो अपनी माँ को खिला रही थी,
उन नन्ही आँखों में संतोष की वो चमक थी ,
एक कोर जब वो अपनी माँ को दे रही थी.
माँ की आँखों में बेबशी के आसूं थे,
करती भी क्या वो दोनों हाथो से वो लाचार जो थी.