बहुत दिनों से कोई कविता नहीं लिखी,
आज सुबह से ही सोच रहा था ,
आज किसी न किसी विषय पर कविता लिखूंगा ,
सुबह घर से चला तो सोचा ,
ऑफिस पहुचने से पहले कोई न कोई विषय पर ध्यान केन्द्रित कर ही लूँगा ,
बस में चल दिया और अगले एक घंटे में दिमाग को खूब दौड़ाया ,
किसी विषय पर तो अपने शब्दों का जाल से बुनू
किसी एक विषय में दो चार पंकित्यो से आगे नहीं सोच पा रहा था,
घर परिवार से दुनियादारी तक , अपने देश से लेकर दुनिया तक,
कल्पनाओ से लेकर यथार्थ तक ,
चाँद तारो से लेकर सागर के तल तक ,
सब सोच रहा था,
ऑफिस पंहुचा तो ऐसा उलझा की ,
अपनी ज़िन्दगी ही कविता लग रही थी ,
सोचा अभी थोडा काम निपटा लेता हूँ ,
अब लौटते हुए दिमाग लगाऊंगा ,
लेकिन लौटते हुए दिमाग की हालत ऐसी हो गयी थी,
बस में जाते ही सो गया ,
मेरे घर के स्टैंड पर कंडक्टर ने आवाज देकर उतारा था,
घर पहुच कर टीवी और बीवी बच्चो की दुनिया में खो गया ,
खाना खाया और कुछ इधर उधर की बाते की ,
रजाई तान के सो गया .
एक कविता रचने की जो सुबह से सोच रहा था ,
अब शायद मेरे सोने के बाद ,
मेरे खर्राठे से रोशन हो रही थी।