मानसून का
इन्तजार सिर्फ हम ,
या धरा ही
नहीं करते ,
हमारे घर के
दरवाजे , खिड़कियाँ ,
भी बेसब्री
से निहारती है आकाश को ,
बादलो के कड़कने
से ,
उन्हें भी
उम्मीद जगती है ,
वो भी तर होना
चाहते है ,
बारिश के पानी
से ,
जैसे वो पहले
पेड़ रूप में ,
भिगोते थे
खुद को ,
और फिर जड़ो
से कैसे ,
भेजते थे तने
से ,
पानी सारे
पेड़ को ,
उसकी कोमल
शाखों और ,
पत्तो तक
, हरा भरा , निखरा
जैसे शृंगार
कर उठता था ,
अब भले ही
हमने उसे ,
काटकर बना
लिए हो ,
अपने दरवाजे
, चौखट ,
मगर अब भी
वह तरसता है ,
बारिश के पानी
को ,
खूब पीता है
,
मानसून ढलने
पर ,
वह ख़ुशी से
फूल जाता है ,
इतरा कर थोड़ा
टेड़ा हो जाता है,
खुद को तैयार
करता है फिर ,
ठिठुरता है
जाड़ो में ,
निष्ठुर गर्मियाँ
सोख लेती है,
घाव दे जाती
है हजार ,
अगली बारिश
का इन्तजार ,
उसको भी होता
है,
फिर मानसून
का इन्तजार ,
उसको भी बेसब्री
से होता है।