मुझे "सच " लिखने में डर लगता है ,
क्यूँकि "सच" चीथड़े कर देता है झूठ के ,
नकाब हटा देता है चेहरों से ,
खोल देता है परत दर परत झूठ की ,
और सब " उजाला " कर देता हैं ,
लेकिन इस उजाले को देखने की ,
ताकत किसमे बची है अब ,
हमें तो अब झूठ में जीने में ,
मजा आने लगा है और ,
वही सच लगने लगा है ,
जो भी लिखना चाहता है "सच",
उसकी बातों पर किसको अब विश्वास है ,
न जाने क्यों फिर भी कुछ सिरफिरे ,
सच की तलाश में भटकते है ,
और फिर एक दिन गुमनाम ,
जीवन जीने को मजबूर होते हैं,
पता सबको हैं , अंत में " सच "
एक न एक दिन उभर ही आयेगा ,
अँधियारे को मात देकर ,
झक "उजाला " कर जायेगा ,
मगर इस अंतराल में ,
"झूठ " अपनी बाजी जीत जायेगा।