सुबह उठे , तैयार हुए और बैग पकड़ा और चल दिए.
दिन भर सर सर कहते बिताया और शाम को फिर बैग लेकर चल दिए.
बस में धक्का मुक्की के बाद पसीना पोछते हुए घर पहुच गए.
और निढाल होकर चारपाई में लेट गए.
बीवी ने कुछ पूछा तो झला दिए, बेटे ने एक सवाल पूछा तो उसको हड़का दिए.
मम्मी ने पूछा " बेटा ! क्या हुआ? "
उसको भी बिना कुछ बताये टी वी देखने बैठ गए.
रात का खाना खाया और फिर सो गए.
रोज़ की इस दिनचर्या से कम कितना उकता गए,
ज़िन्दगी जो कभी हमारी थी, सच में कितना पराया कर गए.
हफ्ते के छ दिन ऑफिस को दे दिए और सातवा दिन जिसे संडे कहते है ,
थकान मिटाने में गुजार दिए.
अब कहाँ बचा कुछ सोचने को, कुछ समय परिवार के साथ बिताने को,
सपने में भी कभी बॉस की डांट सुनायी देती हैं,
टार्गेट पूरा नहीं होने का डर रात को भी जगा देती हैं.
सच में ज़िन्दगी अब बस सिसकिया लेती हैं.................
निकल पड़ा हूँ लेखन यात्रा में , लिए शब्दों का पिटारा ! भावनाओ की स्याही हैं , कलम ही मेरा सहारा !!
Tuesday, November 16, 2010
Thursday, November 11, 2010
अब भी मेरे गाँव में ऐसा होता है....................
इस दिल्ली शहर में घर से दो मिनट भी निकलते हैं,
तो पहले ताला चाबी दूंदते हैं.
मेरे गाँव में हम दो दिन के लिए बाहर जाते हैं ,
तो पडोसी चाची को जरा घर देख देना कह खुला छोड़ जाते हैं.
इस शहर में पिछले दो सालो से रहते हुए भी में अपने पडोसी को नहीं जानता,
मेरे गाँव में अब भी कोई नया आ जाए तो,
उसे कोई भैया, कोइ चाचा , तो कोई ताऊ कह कर रिश्ता जोड़ते हैं.
यहाँ शहर में घूमने के लिए हम पार्क दूंदते हैं,
मेरे गाँव में हम कोई नया घर बने तो खुश होते हैं.
इस शहर में १०० मीटर भी जाना तो हम रिक्श्वा वाले को दूंदते हैं,
मेरे गाँव में हम कई किलोमीटर पैदल ही नाप लेते हैं.
इस शहर में बिना ए सी और पंखे के गुजारा नहीं होता,
मेरे गाँव में कोई घर पंखा लगाये तो हम हंसते हैं.
इस शहर में अब ओवेन में खाना बनाते हैं,
मेरे गाँव में चूल्हे में अब भी रोटिया सेंकते हैं.
इस शहर में स्कूल फाईव स्टार हो गए हैं,
मेरे गाँव की पाठशाला में अब भी बच्चे दरी में बैठ कर ख्वाब बुनते हैं.
इस शहर में पेड़ खोजने से मिलते हैं,
मेरे गाँव में अब भी जंगल में जाने से डरते है.
इस शहर में थोडा सर्दी जुकाम भी हो जाये तो डॉक्टर के पास जाते हैं.
मेरे गाँव में अब भी काडा पीकर काम चलाते हैं.
इस शहर से लोग मेरे गाँव में ट्रेकिंग करने के लिए जाते हैं,
मेरे गाँव के लड़के उच्चे उच्चे पहाड़ो को बात बात में नाप आते हैं.
( मैं मूलत उतराखंड के अल्मोड़ा जिले के छोटे से गाँव कोटूली से तालुक रखता हूँ जो जीविका चलाने के लिए दिल्ली में रह रहा हूँ.)
तो पहले ताला चाबी दूंदते हैं.
मेरे गाँव में हम दो दिन के लिए बाहर जाते हैं ,
तो पडोसी चाची को जरा घर देख देना कह खुला छोड़ जाते हैं.
इस शहर में पिछले दो सालो से रहते हुए भी में अपने पडोसी को नहीं जानता,
मेरे गाँव में अब भी कोई नया आ जाए तो,
उसे कोई भैया, कोइ चाचा , तो कोई ताऊ कह कर रिश्ता जोड़ते हैं.
यहाँ शहर में घूमने के लिए हम पार्क दूंदते हैं,
मेरे गाँव में हम कोई नया घर बने तो खुश होते हैं.
इस शहर में १०० मीटर भी जाना तो हम रिक्श्वा वाले को दूंदते हैं,
मेरे गाँव में हम कई किलोमीटर पैदल ही नाप लेते हैं.
इस शहर में बिना ए सी और पंखे के गुजारा नहीं होता,
मेरे गाँव में कोई घर पंखा लगाये तो हम हंसते हैं.
इस शहर में अब ओवेन में खाना बनाते हैं,
मेरे गाँव में चूल्हे में अब भी रोटिया सेंकते हैं.
इस शहर में स्कूल फाईव स्टार हो गए हैं,
मेरे गाँव की पाठशाला में अब भी बच्चे दरी में बैठ कर ख्वाब बुनते हैं.
इस शहर में पेड़ खोजने से मिलते हैं,
मेरे गाँव में अब भी जंगल में जाने से डरते है.
इस शहर में थोडा सर्दी जुकाम भी हो जाये तो डॉक्टर के पास जाते हैं.
मेरे गाँव में अब भी काडा पीकर काम चलाते हैं.
इस शहर से लोग मेरे गाँव में ट्रेकिंग करने के लिए जाते हैं,
मेरे गाँव के लड़के उच्चे उच्चे पहाड़ो को बात बात में नाप आते हैं.
( मैं मूलत उतराखंड के अल्मोड़ा जिले के छोटे से गाँव कोटूली से तालुक रखता हूँ जो जीविका चलाने के लिए दिल्ली में रह रहा हूँ.)
Wednesday, November 10, 2010
एक कदम
" तू चल तो सही अपने कदम,
हर हालत में कही न कही पहुच ही जायेगा.
बैठा रहेगा एक जगह पर तो,
वही पर रह जायेगा.
कदम छोटे ही भले ही चल,
मगर कदमो को रुकने मत दे,
नदी की तरह खुद अपने रास्ते बना लेगा.
कदमो को गर जरुरत पड़े तो थोडा विश्राम दे,
मगर एक जगह पर टिक अपने मंजिल से अपने को दूर मत कर.
चल चला चल ......कदमो से अपने कितनो के लिए रास्ते बनाता चल. "
हर हालत में कही न कही पहुच ही जायेगा.
बैठा रहेगा एक जगह पर तो,
वही पर रह जायेगा.
कदम छोटे ही भले ही चल,
मगर कदमो को रुकने मत दे,
नदी की तरह खुद अपने रास्ते बना लेगा.
कदमो को गर जरुरत पड़े तो थोडा विश्राम दे,
मगर एक जगह पर टिक अपने मंजिल से अपने को दूर मत कर.
चल चला चल ......कदमो से अपने कितनो के लिए रास्ते बनाता चल. "
Thursday, November 4, 2010
शुभ दीपावली
“प्रकाश के इस त्यौहार में,
जगमग रहे जीवन.
तिमिर का नाश हो,
फैले उजियारा सर्वत्र,
आशाओं के दीप जले,
उम्मीदों के गुलशन खिले,
जीवन का हर पल महके,
हर पल में खुशियों के दीप जले. "
जगमग रहे जीवन.
तिमिर का नाश हो,
फैले उजियारा सर्वत्र,
आशाओं के दीप जले,
उम्मीदों के गुलशन खिले,
जीवन का हर पल महके,
हर पल में खुशियों के दीप जले. "
Monday, November 1, 2010
दिल्ली मेट्रो + राजीव चौक = सांस लेने को जगह नहीं .........
कल ऑफिस से घर को निकला. ६:१५ पर ओखला स्टेशन से मेट्रो पकड़ी और आराम से सेंटर सेक्त्रैअत पंहुचा. फिर उधर से कश्मीरी गेट के लिए मेट्रो पकड़ी , थोडा भीड़ थी. राजीव चौक पर जैसे ही मेट्रो का गेट खुला , लगा जैसे तूफ़ान आ गया हैं. पहले तो उतरने वालो की धक्का मुक्की और फिर चड़ने वालो ने ऐसा कोहराम मचाया की पूरे कोच में सांस लेने की लिए जगह नहीं बची. जिन लोगो को न्यू दिल्ली उतरना था, वो कश्मीरी गेट पर ही उतर पाए.
इ.श्रीधरन साहब का आरामदायक सफ़र दिन पर दिन दर्दनाक होता जा रहा हैं, कुछ अहितियात नहीं बरते गए तो कुछ दिन बाद ये खबरें आएँगी की राजीव चौक से ट्रेन में चढ़ कर कुछ लोगो के दम घुटने से मौत हो गयी.
मेट्रो ट्रेन को मेट्रो ट्रेन ही रहने दे, लोकल ट्रेन न बनाये. अगर आप सोचे की राजीव चौक से ट्रेन पकड़नी हैं तो सावधान हो जाये. बेहतर हैं बस से ही घर चले जाए.
इ.श्रीधरन साहब का आरामदायक सफ़र दिन पर दिन दर्दनाक होता जा रहा हैं, कुछ अहितियात नहीं बरते गए तो कुछ दिन बाद ये खबरें आएँगी की राजीव चौक से ट्रेन में चढ़ कर कुछ लोगो के दम घुटने से मौत हो गयी.
मेट्रो ट्रेन को मेट्रो ट्रेन ही रहने दे, लोकल ट्रेन न बनाये. अगर आप सोचे की राजीव चौक से ट्रेन पकड़नी हैं तो सावधान हो जाये. बेहतर हैं बस से ही घर चले जाए.
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