“बादलो का कैसा गाँव हैं ? नीचे धरती और ऊपर नीला आसमान हैं !
स्वप्नसरीखा श्वेत उज्जवल फैला हुआ चारो ओर हैं !!
धरती की प्यास बुझाने देखो इनमे होड़ हैं !
उमड़ घुमड़ करते ये बादल अपना सर्वस्य न्योछावर करने को तैयार हैं !!
कैसा नयनाभिराम दृश्य ये , गगन पर छाया हैं !
अपने में नीर समेटे , कुदरत की क्या अजब माया हैं !!
कोई नन्हा बादल उड़ कर कही से आता हैं !
अपने को समाकर इस गाँव में कहीं खो जाता हैं !!
कोई झक सफ़ेद , कोई दैत्याकार है !
कोई रूई की फांक सा , कोई अजब सी आकृति लिए हैं !!
थोड़ा अठखेलियाँ , थोड़ी हुंकार भर - अब ये नन्ही बूँदे बन कर बरस जायेंगे !
मिलकर माटी के साथ सोंधी सोंधी खुशबू बिखेरेंगे !!
कितने पौधों , कितने जीवो की प्यास बुझाने को ये आतुर हैं !
स्वप्नसरीखा गांव थोड़े ही देर में मिट्टी में मिलने को तैयार हैं !!”
(३०००० फ़ीट की उच्चाई से बादलो के फैले हुए झुंड को देखने का सुखद एहसास 6 सितम्बर 15 को अपने बैंगलोर से दिल्ली की हवाई यात्रा में लिया और मेरा कवि मन शरारत कर ही उठा और कुछ शब्दों को पिरो ही दिया. )
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