Sunday, January 6, 2019

कैसा दौर?




काल खंड का ये कैसा दौर आया ? 
सच पर झूठ की संगीन छाया,
 छल प्रपंच और मक्कारी ,
 सीधे सादे लोगो को ढोंगियों ने भरमाया।
  
पिस रहा मानस अपने बोझ तले ही ,
 इच्छाओ की अनंत पराकाष्ठा , 
लगी हुई है दौड़ भयंकर ,
भस्मासुर बन शिव को तलाश रहा।

नैतिकता को तिलांजलि देकर ,
मानवता को दंश लग रहा , 
स्वार्थ की महिमा ऐसी चढ़ रही , 
खुद के अस्तित्व पर संकट छा रहा।

असत्य , सत्य को दबा रहा , 
ढोंगी और प्रपंचियों का बोलबाला , 
आभासी दुनिया के मकड़जाल में , 
पिस रहा सहज मनुष्य भोलाभाला।

 प्रकृति के साथ खेल भयंकर , 
कुरेद डाला उसका  मन , 
अट्टहास हो रहा अट्टालिकाओं से, 
जर जर हो गया तन।

रिश्ते सब मर्यादा लांघ चुके , 
दर्द से अब कोई नहीं पसीजता , 
मानवता अब किताबी रह गयी , 
आँखों से अब "सच्चा " आँसू नहीं आता।

भ्रमित सा चौराहे पर खड़ा , 
कोई रास्ता नहीं सूझ रहा , 
जिधर देखी भीड़ - चल दिया , 
भेड़चाल में "मानुस " जी रहा।

 गवाही देगा जर्रा जर्रा , 
कण कण सच उगलेगा , 
खुदेगी जब मिटटी कालांतर , 

परत दर परत "काला  सच" उभरेगा।    

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