काल खंड का ये कैसा दौर आया ?
सच पर झूठ की संगीन छाया,
छल प्रपंच और मक्कारी ,
सीधे सादे लोगो को ढोंगियों ने भरमाया।
पिस रहा मानस अपने बोझ तले ही ,
इच्छाओ की अनंत पराकाष्ठा ,
लगी हुई है दौड़ भयंकर ,
भस्मासुर बन शिव को तलाश रहा।
नैतिकता को तिलांजलि देकर ,
मानवता को दंश लग रहा ,
स्वार्थ की महिमा ऐसी चढ़ रही ,
खुद के अस्तित्व पर संकट छा रहा।
असत्य , सत्य को दबा रहा ,
ढोंगी और प्रपंचियों का बोलबाला ,
आभासी दुनिया के मकड़जाल में ,
पिस रहा सहज मनुष्य भोलाभाला।
प्रकृति के साथ खेल भयंकर ,
कुरेद डाला उसका मन ,
अट्टहास हो रहा अट्टालिकाओं से,
जर जर हो गया तन।
रिश्ते सब मर्यादा लांघ चुके ,
दर्द से अब कोई नहीं पसीजता ,
मानवता अब किताबी रह गयी ,
आँखों से अब "सच्चा " आँसू नहीं आता।
भ्रमित सा चौराहे पर खड़ा ,
कोई रास्ता नहीं सूझ रहा ,
जिधर देखी भीड़ - चल दिया ,
भेड़चाल में "मानुस " जी रहा।
गवाही देगा जर्रा जर्रा ,
कण कण सच उगलेगा ,
खुदेगी जब मिटटी कालांतर ,
परत दर परत "काला सच" उभरेगा।
बेहतरीन आनंद
ReplyDeleteवाह सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteWonderful
ReplyDeleteShaandaar
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