जब कभी अपनी हारो की सोचता हूँ ,
उस एक जीत के आगे सब फीका नजर आता है ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।
कभी शिकायतों का पुलिंदा जब खोलूं ,
रहमतो का पलड़ा ज्यादा भारी नजर आता है ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।
छाया हो घुप्प अँधेरा राहो में ,
टिमटिमाता कोई जुगनू नजर आता है ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।
जब देखता हूँ मानवता पर संकट के बादल ,
किसी फ़रिश्ते का किस्सा पढ़ने में आ जाता है ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।
देकर कभी थोड़ा निराशा के बादल ,
फिर किरणों से आकाश भर देता है ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।
जब भी उठने लगता है विश्वास उस पर ,
उसका कोई चमत्कार आँखों के आगे आ जाता है ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।
रिश्तो से जब मन भर भर जाता है ,
कोई अजनबी सा रहनुमा बन खड़ा मिलता है ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।
जब कभी अपने वजूद पर संशय ,
उम्मीदों , दुआओं और आशाओ का अम्बार नजर आता है,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।
उठ ही जाती है कलम बार बार ,
जब भावनाओ का ज्वार उठता है ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।
फोटो आभार - उमेश मेहरा ( मेरा छोटा भाई ), इसी छायाचित्र ने मुझे ये पंक्तियाँ लिखने के लिए विवश किया।