दुविधा बड़ी है ,
राहें ज़िन्दगी की ,
क्या छोड़ू,क्या समेटू ,
समेटू तो कुछ जरूर छूटे ,
छोड़ू कुछ तो बुरा लगे ,
समेटने - छोड़ने के क्रम में ,
दिमाग हमेशा उलझन में रहे ,
उधेड़बुन कदम दर कदम ,
न कुछ छूटे,न कुछ समेटे ,
गुजर रहा है कारवाँ ,
हम गुदड़ी कंधे में बोके,
चल रहे है हक्के -बक्के,
हर मंजर पर आँखे फाड़े ,
सुस्ताते कभी, कभी तेज भागे ,
किसी को टंगड़ी दे ,
आगे बढ़ते ,
पीछे से कोई टाँग खींचे ,
क्या चाहिए ,
कितना चाहिये ,
क्यों चाहिये ,
परवाह कहाँ है ,
बोझ काँधे का खुद बढ़ाते ,
हाँफते , लड़खड़ाते ,
खिसियानी सी मुस्कान फेरे ,
असमंजस्य में दो नन्हे कदम ,
कभी आगे बढ़े ,
कभी पीछे को खिसके ,
किंककर्तव्यविमूढ़ मस्तिष्क,
बस हार -जीत की सोचे,
दिल की कौन सुने अंधड़ में,
वो इक पल सुकून को तरसे,
समय की चाल बराबर ,
परवाह कहाँ उसे ,
कौन आगे बढ़ा ,
और कौन पीछे छूटे।