हर रोज़ सोचता हूँ आज कुछ न कुछ जरुर लिखूंगा,
मगर सोचता हूँ टाइम कहाँ हैं कुछ सोचने का ,
सोचूंगा नहीं तो क्या लिखूंगा ?
हफ्ते के सात दिन , छ दिन ऑफिस में व्यस्त ,
रविवार को घर वालो को टाइम देने का वक्त.
ऑफिस में किसको फुर्सत हैं जी हजूरी करने से,
शाम को बीवी बच्चो की शिकायतों से पस्त.
सोचा आज ऑफिस आते जाते कुछ सोचूंगा ,
क्यूंकि यही वक्त हैं मेरे पास दिमाग दौडाने का ,
मगर मेट्रो में जैसे ही कुछ सोचने लगता हूँ,
अगला स्टेशन आ जाता हैं ,
कुछ अन्दर चडते हैं और कुछ बाहर का रास्ता पकड़ते हैं ,
अन्दर और बाहर होने वाले लोग आपको सरका जाते हैं,
विचारो का एक फ्लो जो थोडा बनता हैं ,
उसको बिगाड़ जाते हैं.
हर रोज़ यही चलता रहता हैं ,
कविताये जन्म लेने से पहले ही दम तोड़ देती हैं,
ज़िन्दगी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से कुछ ऊपर सोचने ही नहीं देती हैं.
चलो ! इस उम्मीद में हैं एक दिन आएगा जब हम भी फुर्सत में होंगे,
दूर किसी पहाड़ो में झरने के नीचे एकांत में कविताये लिखेंगे ,
तब तक... गाहे बगाहे कुछ होगा तो जल्दी में लिख डालेंगे ,
तुकबंदी न भी बन पड़े , भावनाओ के शब्दों का जामा पहनते रहेंगे.
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