Friday, July 20, 2018

मॉडर्न वाला इश्क ( व्यंग्य )




सुना है इश्क का रंग बड़ा गहरा होता है ,
जिसे हो जाये , बस उसे ही लगता है 
पर आज के जमाने को देखकर लगता है , 
लद गए वो जमाने अब , 
मॉडर्न वाला इश्क चलता है।    

व्यावहारिक हो गया है इश्क अब , 
कई कसौटियों पर तुलता है , 
दिल से नहीं गुजरता अब , 
दिमाग में पहले उतरता है।  

नहीं रही अब वो संजीदगी , 
इश्क होने से पहले ब्रेकअप हो जाता है , 
तू न सही , और कोई सही , 
फार्मूला हर बार काम कर जाता है।  

इश्क अब यूँ ही नहीं होता , 
पूरी पड़ताल के बाद होता है , 
नजरे मिलाने से पहले , 
उसका फेसबुक, ट्विटर और इंस्ट्रागाम जरूर चेक होता है।  

जरुरी भी है वक्त बदल गया है , 
समय के साथ जरूर चलना चाहिए , 
इश्क को भी इस दौर के इम्तेहान देने चाहिए , 
उसकी "हां" या "न " के इंतजार के बीच दो चार ऑप्शन और होने चाहिए।   

Thursday, July 5, 2018

मासूम

रोज़ न जाने क्यों वो लड़की ,
घंटो आसमान को ताकती है , 
रोज़ न जाने क्यों वो लड़की , 
बगीचे के हर फूल को सूंघती है , 
रोज़ न जाने क्यों वो लड़की , 
हवा को महसूस करती है , 
रोज़ न जाने क्यों वह लड़की , 
सूरज की पहली किरण को चूमती है।  

उसकी माँ ने जाने से पहले उसे ,
बहलाने के लिए कहा था शायद , 
जब भी उसकी याद आएगी , 
आसमां में तारा बनकर वो मिलने आएगी ,
या फिर किसी फूल में खुसबू बन जाएगी ,
या हवा के ठन्डे झोंके में समाकर उसे सहलाएगी ,
या सूरज की पहली किरण बनकर उससे मिलने आएगी।  

वो मासूम जानती थी , 
उसकी माँ कभी झूठ नहीं बोलती थी , 
उसने जो बोला था , 
वह तो बस उसको जी रही थी।  

आसमान के उस तारे में उसे अपनी माँ दिखाई देती थी , 
उस गुलाब के फूल में उसे अपनी माँ की खुशबू आती थी , 
वो हवा का झोंका जब उसके गालों को छूता था , 
माँ के कोमल हाथो का स्पर्श उसे महसूस होता था , 
सूरज की पहली किरण में माँ की मुस्कान दिखती थी , 
उस मासूम को शायद एहसास नहीं था , 
माँ तो अब कभी न लौटने के लिए चली गयी थी।  

वो मासूम जानती थी , 
उसकी माँ कभी झूठ नहीं बोलती थी , 
उसने जो बोला था , 
वह तो बस उसको जी रही थी।