क्या कभी आपने देखा है किसी पहाड़ की ओट से ,
उगते सूरज को ?
महसूस किया किरणों की मखमली ऊष्मा को ?
क्या कभी आपने देखा है समंदर में डूबते
सूरज को ?
जैसे नहा रहा हो ,
और महसूस किया है धीरे धीरे बढ़ती शीतलता
को ?
क्या कभी गुजरे है किसी जंगल से ?
सुनी है आवाज हवा और पेड़ो की ?
जैसे आपस में बतियाते हो ,
किसी बहते नदी में पैर डाले है ,
वो छुवन क्या अब भी ताजा है ?
क्या कभी भागे हो उस रंगबिरंगी तितली के
पीछे ?
जो तुम्हारी आहट से उड़कर भागी है ,
क्या भीगे हो कभी बारिश की बूँदो से ?
क्या कभी हाथ फैलाकर अपने चेहरे को उठाकर
?
महसूस किया है बूँदो के चुम्बन को ,
क्या कभी कोई फल सीधा पेड़ से तोड़कर खाया
है ?
और महसूस किया है उस डाली के कम होते वजन
को ,
उसको फिर थोड़ा ऊपर उठते हँसते हुए ,
कभी महसूस की है मिटटी की वो सौंधी सुगंध
?
जब बारिश की पहली बूँद गिरी उसपर ,
क्या साक्षी बने हो किसी बीज के ?
नवांकुर फूटने से पौधा बनने तक,
क्या देखा है किसी चिड़िया का घौंसला ?
एक एक तिनके से गुँथा हुआ कितना सुन्दर
,
क्या कभी चढ़े हो गाँव के उस टीले पर ?
और आवाज लगायी हो किसी को जी भर कर ,
क्या देखी है आपने बादलो की आसमाँ में होड़?
और उनसे छनकर आती जरा सी धूप।
जितने "हाँ " उतना प्रकृति के
नजदीक तुम ,
जितने
"ना " इत्तु सा प्रकृति के करीब तुम।