जीवन की आपाधापी में ,
सब कुछ जैसे छूट रहा है ,
ज्यूँ - ज्यूँ आगे बढ़ना है ,
त्यूँ - त्यूँ कुछ छूट जाना है।
रोज़ नई मशक्कत जीवन की ,
कुछ पाना कुछ खोना है ,
अधरों में मुस्कान लिये मुसाफिर ,
रोज थोड़ा हँसना , थोड़ा रोना हैं।
वक्त कहाँ थोड़ा सुकून के लिये ,
ये भी करना है , वो भी भरना है ,
कस्तूरी मृग सा , मृगतृष्णा सी ,
कभी यहाँ , कभी वहाँ भटकना है।
दौड़ लगी हैं बड़ी भयंकर,
सब कुछ समेट लेना है ,
भोग्य को भोग सके तक,
खुद भोग हो जाना है।