Thursday, February 20, 2025

आपाधापी

 

जीवन की आपाधापी में ,

सब कुछ जैसे छूट रहा है ,

ज्यूँ - ज्यूँ आगे बढ़ना है ,

त्यूँ - त्यूँ कुछ छूट जाना है।

 

रोज़ नई मशक्कत जीवन की ,

कुछ पाना कुछ खोना है ,

अधरों में मुस्कान लिये मुसाफिर ,

रोज थोड़ा हँसना , थोड़ा रोना हैं।

 

वक्त कहाँ थोड़ा सुकून के लिये ,

ये भी करना है , वो भी भरना है ,

कस्तूरी मृग सा , मृगतृष्णा सी  ,

कभी यहाँ , कभी वहाँ भटकना है।

 

दौड़ लगी हैं बड़ी भयंकर,

सब कुछ समेट लेना है ,

भोग्य को भोग सके तक,

खुद भोग हो जाना है।

Monday, February 3, 2025

जीवन मूल्य

 

गुजर रहे है हम उस दौर से ,

सब कुछ धीरे -धीरे बदल रहा ,

नए मानक स्थापित हो रहे है,

पीछे बहुत कुछ छूट रहा।

 

पीछे जो छूट रहा है ,

उसमे कुछ सँभालने लायक भी है ,

मगर दौड़ इतनी भयंकर ,

सँभालने का वक्त किसको मिल रहा।

 

परिवार दरक रहा ,विश्वास हिल रहा ,

धैर्य हिचकोलों में फँसा हुआ ,

आस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह है,

ये कौन दिशा और दशा तय कर रहा।

 

प्रेम -स्वार्थ की बलि चढ़ रहा ,

अहं सिर चढ़ बोल रहा ,

बेवजह चिंताएं शरीर नाश कर रही ,

जो है हाथ में , वो भी खो रहा।

 

बेशक नए मूल्य गढ़ने चाहिये ,

परिवर्तन समय की दरकार भी है ,

मगर जिन मूल्यों पर खड़ा है जीवन , 

उनको सहेजना भी जरुरी है।