गंगा तट पर बैठ समझ रहा जीवन सार ,
नन्ही धार बन नदिया , पहुंचे सागर द्वार ,
बहने के सफ़र में करती सबका कल्याण ,
"गंगा " से "गंगा जी " बनने का यही विस्तार।
निकली छल-छल, कल-कल हिमालय से ,
करती पुनीत पावन पहुँचती हरिद्वार ,
गति मंद स्थिर बहकर कानपूर से ,
मिलती यमुना से प्रयागराज त्रिवेणी घाट।
2525 किलोमीटर का सफर ,
न जाने कितने गाँव , कितने शहर ,
सदियों से बह रही है "गंगा" ,
इतिहास की इक अमूल्य धरोहर।
सबको मिलाती , अपने में घुलाती ,
बह रहा अविरल प्रवाह निरंतर,
जल ही जीवन , जल ही अमृत ,
"माँ गंगे " बहती रहो युग पर्यन्त।
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