हिमालय की गोद में जन्मा, ऊँचे ऊँचे पहाड़ो के नीचे पला ,
ठंडी हवा के झोंके के अहसास के बीच , बेफिक्र मेरा बचपन गुजरा !
पढाई की खातिर फिर घर छोड़ा , घर से अलग हुआ ज़िन्दगी बनाने के खातिर,
फिर हमेशा से एक अलगाव सा रहा.
पढाई खत्म की एक बार फिर से लगा, फिर से बचपन जीयूँगा अपने गाँव में !
मगर भविष्य की खातिर शहर आना हुआ.
इन कंक्रीट के जंगलो से पाला पड़ा तो , समझ मे आ गया !
ज़िन्दगी के मायने जो सीखे थे कभी मम्मी की कहानियो में,
कथायो और हकीकत में फर्क समझ मे आ गया.
अब ज़िन्दगी की हकीकत ये हैं , न शहर के रहे और न गाँव के हम.
समझ नहीं आता क्यूँ भाग रहे हैं लोग यहाँ, सुकून का एक फुरसत कहाँ.
हम भी लग गए हैं भीड़ के पीछे , आगे सब धुंधला -धुंधला सा !
कहते तो हैं ज़िन्दगी बनती हैं इस शहर में, मगर ज़िन्दगी हैं कहाँ.
इसी पशोपेश में कट रही हैं ज़िन्दगी ,बस यही हैं तीन दशक की मेरी कहानी.
निकल पड़ा हूँ लेखन यात्रा में , लिए शब्दों का पिटारा ! भावनाओ की स्याही हैं , कलम ही मेरा सहारा !!
Thursday, January 21, 2010
Tuesday, January 19, 2010
क्या लिखूं..................
कवि नहीं हूँ जो विचारो के सागर में गोते लगा कर,
कल्पनाओ में उड़ान भर कर,
शब्दों की माला पिरोउ ,
लेखक नहीं हूँ, जो शब्दों का मकडजाल बुनू.
आम आदमी हूँ सीमित शब्दकोष से खेलता हूँ,
जब भी लिखने बैठता हूँ,
दिमाग सवाल करता हैं - क्या लिखूं.
महंगाई और बेरोज़गारी ने बुरा हाल किया हैं,
भ्रस्टाचार से सारा जग बेहाल हैं,
रिश्तो के मायने सारे बदल गए हैं,
दोस्ती सिर्फ मतलब तक सिमट गयी हैं.
नौकरी की उलझन और दो जून की रोटी में दुनिया उलझ सी गयी हैं.
समय की कमी सबको पास हो गयी हैं,
दो चार मीट्ठे बोल किसी से सुनने के लिए,
अब पैसे देकर महफ़िल सजाने की रियात हो गयी हैं.
मजबूरी का फायदा दुनिया उठाने में लगी हैं,
आदमी को आदमी से शिकायत होने लगी हैं.
ऐसे हालत में कलम भी साथ छोड़ देती हैं,
क्या लिखू , पढने वाले कहाँ हैं?
सारे लोग तो व्यस्त हैं,
फिर लिख कर क्या करू ?
कल्पनाओ में उड़ान भर कर,
शब्दों की माला पिरोउ ,
लेखक नहीं हूँ, जो शब्दों का मकडजाल बुनू.
आम आदमी हूँ सीमित शब्दकोष से खेलता हूँ,
जब भी लिखने बैठता हूँ,
दिमाग सवाल करता हैं - क्या लिखूं.
महंगाई और बेरोज़गारी ने बुरा हाल किया हैं,
भ्रस्टाचार से सारा जग बेहाल हैं,
रिश्तो के मायने सारे बदल गए हैं,
दोस्ती सिर्फ मतलब तक सिमट गयी हैं.
नौकरी की उलझन और दो जून की रोटी में दुनिया उलझ सी गयी हैं.
समय की कमी सबको पास हो गयी हैं,
दो चार मीट्ठे बोल किसी से सुनने के लिए,
अब पैसे देकर महफ़िल सजाने की रियात हो गयी हैं.
मजबूरी का फायदा दुनिया उठाने में लगी हैं,
आदमी को आदमी से शिकायत होने लगी हैं.
ऐसे हालत में कलम भी साथ छोड़ देती हैं,
क्या लिखू , पढने वाले कहाँ हैं?
सारे लोग तो व्यस्त हैं,
फिर लिख कर क्या करू ?
Tuesday, January 5, 2010
चल पड़े हम...........
चल पड़े हम ज़िन्दगी की राहों में, अब जो भी होगा देख लेंगे.
कल क्या होगा इसको पीछे छोड़ के,बस आज को जीने के लिए.
कल का कोई अफ़सोस नहीं, कल की कोई परवाह नहीं .
आज जो हैं बस उसी को जीने के लिए.
न किसी से कोई शिकवा हैं अब, मिटा के सबसे दुश्मनी .
चल पड़े हैं हम ज़िन्दगी की राहों में,बस ज़िन्दगी को जीने के लिए.
कोई रोके , कोई टोके अब कोई परवाह नहीं, निकल पड़े हैं अपनी मन की करने .
खुद को जो अच्छा लगे बस उसी को करने के लिए.
खुद के लिए मुकाम बनाने के लिए, चिंतायों की चंगुल से आज़ाद होके .
निकल पड़े हैं ज़िन्दगी को अपना बनाने के लिए.
राहों को खुद तलाशने के लिए, मंजिलो पर अपने निशान छोड़ने के लिए.
ज़िन्दगी की राहों में खुद अपना नाम लिखने के लिए.
कल क्या होगा इसको पीछे छोड़ के,बस आज को जीने के लिए.
कल क्या होगा इसको पीछे छोड़ के,बस आज को जीने के लिए.
कल का कोई अफ़सोस नहीं, कल की कोई परवाह नहीं .
आज जो हैं बस उसी को जीने के लिए.
न किसी से कोई शिकवा हैं अब, मिटा के सबसे दुश्मनी .
चल पड़े हैं हम ज़िन्दगी की राहों में,बस ज़िन्दगी को जीने के लिए.
कोई रोके , कोई टोके अब कोई परवाह नहीं, निकल पड़े हैं अपनी मन की करने .
खुद को जो अच्छा लगे बस उसी को करने के लिए.
खुद के लिए मुकाम बनाने के लिए, चिंतायों की चंगुल से आज़ाद होके .
निकल पड़े हैं ज़िन्दगी को अपना बनाने के लिए.
राहों को खुद तलाशने के लिए, मंजिलो पर अपने निशान छोड़ने के लिए.
ज़िन्दगी की राहों में खुद अपना नाम लिखने के लिए.
कल क्या होगा इसको पीछे छोड़ के,बस आज को जीने के लिए.
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