हिमालय की गोद में जन्मा, ऊँचे ऊँचे पहाड़ो के नीचे पला ,
ठंडी हवा के झोंके के अहसास के बीच , बेफिक्र मेरा बचपन गुजरा !
पढाई की खातिर फिर घर छोड़ा , घर से अलग हुआ ज़िन्दगी बनाने के खातिर,
फिर हमेशा से एक अलगाव सा रहा.
पढाई खत्म की एक बार फिर से लगा, फिर से बचपन जीयूँगा अपने गाँव में !
मगर भविष्य की खातिर शहर आना हुआ.
इन कंक्रीट के जंगलो से पाला पड़ा तो , समझ मे आ गया !
ज़िन्दगी के मायने जो सीखे थे कभी मम्मी की कहानियो में,
कथायो और हकीकत में फर्क समझ मे आ गया.
अब ज़िन्दगी की हकीकत ये हैं , न शहर के रहे और न गाँव के हम.
समझ नहीं आता क्यूँ भाग रहे हैं लोग यहाँ, सुकून का एक फुरसत कहाँ.
हम भी लग गए हैं भीड़ के पीछे , आगे सब धुंधला -धुंधला सा !
कहते तो हैं ज़िन्दगी बनती हैं इस शहर में, मगर ज़िन्दगी हैं कहाँ.
इसी पशोपेश में कट रही हैं ज़िन्दगी ,बस यही हैं तीन दशक की मेरी कहानी.
Kahte hain zindagi banti hain yahan, magar zindagi hain kahan. Kya khoob likha hain boss.
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