कवि नहीं हूँ जो विचारो के सागर में गोते लगा कर,
कल्पनाओ में उड़ान भर कर,
शब्दों की माला पिरोउ ,
लेखक नहीं हूँ, जो शब्दों का मकडजाल बुनू.
आम आदमी हूँ सीमित शब्दकोष से खेलता हूँ,
जब भी लिखने बैठता हूँ,
दिमाग सवाल करता हैं - क्या लिखूं.
महंगाई और बेरोज़गारी ने बुरा हाल किया हैं,
भ्रस्टाचार से सारा जग बेहाल हैं,
रिश्तो के मायने सारे बदल गए हैं,
दोस्ती सिर्फ मतलब तक सिमट गयी हैं.
नौकरी की उलझन और दो जून की रोटी में दुनिया उलझ सी गयी हैं.
समय की कमी सबको पास हो गयी हैं,
दो चार मीट्ठे बोल किसी से सुनने के लिए,
अब पैसे देकर महफ़िल सजाने की रियात हो गयी हैं.
मजबूरी का फायदा दुनिया उठाने में लगी हैं,
आदमी को आदमी से शिकायत होने लगी हैं.
ऐसे हालत में कलम भी साथ छोड़ देती हैं,
क्या लिखू , पढने वाले कहाँ हैं?
सारे लोग तो व्यस्त हैं,
फिर लिख कर क्या करू ?
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