ज़िन्दगी और मेरी कहासुनी चलती रहती हैं,
कभी वो मुझे कोसती हैं , कभी में उसको.
कभी वो मुझे शाबाशी देती हैं, कभी मैं उसको.
लुकाछिप्पी का खेल हम बरसो से खेल रहे हैं.
न वो हारने को तैयार और न मैं.
कभी वो आगे निकल जाती हैं तो कभी मैं.
मिल ही जाते हैं थोडा दूर चल कर हम फिर,
कभी वो मेरा मुहं चिडाती हैं और कभी मैं.
दोनों को पता हैं साथ साथ ही चलना हैं हमें,
एक के बिना दूसरे का गुजारा नहीं हैं,
फिर भी एहमियत समझाने को ,
कभी वो आगे निकल जाती हैं कभी मैं.
दोनों की मंजिल एक हैं फिर भी,
कभी वो जल्दबाजी दिखाती हैं और कभी मैं.
थक कर जब हम चूर हो जाते हैं कभी,
कभी वो मुझे संभालती हैं और कभी मैं.
इसी तरह से फिसलता हैं वक़्त हमारी मुट्ठी से,
कभी वो बेबसी से मेरा मूंह ताकती और कभी मैं.
excellent poem
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