उच्चे उच्चे पहाड़, बीच से बहती नदी,
ताज़ी हवा और वीराने में कूकती चिड्याएं
दूर दूर तक मनोरम द्रश्य ,
न कोई कोलाहल , न कोई भागमभाग,
न गाडियों का रेला और दूर दूर बिखरा गाँव.
मगर न जाने क्यों इन सबको नजर लग गयी हैं,
हर गाँव सूना सूना सा हैं,
अपने बच्चो के लौटने का कब से इन्तेजार कर रहा हैं,
उस गाँव के लाल पैसे कमाने शहर गए हैं,
अपने पीछे बुड़े माँ बाप छोड़ गए हैं,
बीवी हर रोज़ आस में जीती हैं,
बच्चे पापा के इन्तेजार में हर रूकती गाड़ी से आस लगाये रहते हैं.
और गाँव का बेटा शहर की गर्मी में झुलस रहा होता हैं,
एक एक पैसे की खातिर हर रोज़ मर रहा होता हैं,
जब कभी फुर्सत मिलती हैं उसे शहर की दौड़ भाग से ,
अपनी गाँव की याद में जल रहा होता हैं.
कब ये पहाड़ अपने श्राप से मुक्त होंगे ,
इसके अपने बच्चे कब इसके अपने होंगे ,
इसके रास्ते अपने बच्चो के पदचाप के लिए तरस गए हैं,
कब वो बुड़े माँ बाप शहर से आने वाली हर गाड़ी को ताकना बंद करेंगे ,
कब उस पत्नी का वियोग ख़त्म होगा,
कब बच्चे अपने पिता को हर रोज़ देखेंगे,
कब अपने बच्चो के पैरो की धमक से ये पहाड़ फिर गूंजेंगे ,
कब इसके बच्चे इसे छोड़ कर कभी नहीं जायेंगे.
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