रोज़मर्रा की उलझनों से , एक दिन थोडा वक्त अपने लिए निकाला.
थोडा आत्म-मंथन के लिए बैठा , तो अपने आपको को एक बदला हुआ इंसान पाया.
वो उसूल , वो आदर्श , वो लक्ष्य , वो जूनून - जो देखे थे कभी लड़कपन में, अपने आपको उनसे बहुत दूर पाया.
अब इसे मजबूरी कह ले या हालातो का सितम , कैसे - कहाँ - कब ये सब हुआ पता ही नहीं चल पाया.
सोचने को मजबूर हुआ की - चले थे किस ओर हम , कहाँ पहुच गए.
पकड़ा तो था हमने नदी का वो किनारा , दुसरे किनारे कैसे पहुच गए.
तारीखे बदलती गयी , साल न जाने कहाँ चले गए.
हम भी रोज़ की आपा - धापी में खुद को जैसे भूल गए.
दिल के जज्बातों को किनारे कर दिया, दिमाग ने हमें दुनिया के पीछे भगा दिया.
लग गए हम भी वही सब इकठ्ठा करने , दुनिया ने जिसे सफलता का पैमाना बना दिया.
अब अपने लिए वक्त की कमी हो गयी हैं, क्यूंकि दुनिया को दिखाने की हमें ज्यादा पड़ी हैं.
दिल अब भी कहता हैं जो बीत गया , वो गया. अब भी सचेत हो जा.
मिली हैं एक बार जो ये ज़िन्दगी , उसको कुछ मतलब दे जा.
जीवन के उतरार्ध में कभी जब खोले अपने किताब के पन्ने हम , हमें अपने आप पर फक्र हो जाये.
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