बचपन में जब चाँद को छूने की बात करते थे,
तारो से आगे जाने की सोचते थे,
पर्वत शिखरों को खेल खेल में नापने की शर्त लगाते थे,
दुनिया में सब चीजों को पाने के कितने आसान से तरीके सुझाते थे,
ख्वाबो में जीते थे और हर चीज़ को दिल से अपना समझते थे,
दोस्तों पर हमेशा जान छिडकने को तैयार रहते थे,
माँ बाप की डांट को सुनकर उन्हें हम हिटलर समझते थे,
और अब.......
हम जरा उस दहलीज को लाँघ कर आगे बढ गए हैं,
जो चाँद तब हमें मुट्ठी में लगता था,
अब हम उसकी बात भी नहीं करते हैं.
तारे तोडना जैसे बात सोच सोच कर उसे हम अपना बचपना समझ कर भूल जाते हैं.
पर्वत शिखरों पर चड़ने की बात तो दूर, तीसरी मंजिल पर जाने के लिए लिफ्ट दूंदते हैं,
ख्वाबो में जीने की आदत कब की धूमिल हो गयी हैं ,
दोस्तों को न मिले देखे वर्षो बीत गए हैं, नए दोस्तों के लिए नफा नुकसान का ख्याल पहले रखते हैं.
माँ बाप की झिडकियो का मतलब अब समझ में आता हैं.
बदला क्या हैं?
हम बड़े हो गए हैं,
सिर के कुछ बाल सफ़ेद हो गए हैं,
जिंदगी के कुछ अनुभव हमें हो गए हैं,
हर चीज़ को अपने फायदे के तराजू में तोलने लग गए हैं.
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