ज़िन्दगी की कुछ उलझने सुलझाने निकला ,
और उलझनों का इजाफा हो गया,
घुस तो गया उलझनों में ,
सुलझाते सुलझाते चक्रव्यूह में घिर गया।
कुछ उलझने बिना बात की थी ,
कुछ छोटी से उलझने -बवाल निकली ,
कुछ तो सिर्फ मेरे दिमाग में थी ,
और कुछ कई सवालो का जवाब निकली।
अधिकतर उलझनों का हल मेरे पास ही था ,
पहल मैं ही क्यों करूँ ? पर अटका था ,
कुछ मेरे संकोचो ने और कुछ मेरी "मैं " ने ,
आज मुझे इस इस चक्रव्यूह में फँसा दिया था।
अब निकलना तो मुझे ही होगा ,
अपने को संतुलित करना होगा ,
खुले दिमाग से सोचना होगा ,
"मैं" के खोह से निकलना होगा।
शायद तभी इस चक्रव्यूह को भेद पाउँगा ,
"मैं" अकेला सब कुछ नहीं हूँ ,
"अहम " का मुझे त्याग करना होगा,
मुझे जीवन यात्रा में बहुतो का साथ चाहिए होगा।
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