Thursday, August 23, 2018

बारिश की बूँदे

ये बारिश की बूँदे कितनी मनचली है , 
देखो ! कैसे बेबाक और बेख़ौफ़ बरसती है , 
इसको चिंता नहीं धरा के प्यास की , 
देखो, ये आसमान में  कैसे अठखेलियाँ खेलती है।  

इन्हे न अपना घर छोड़ने का मलाल , 
वो मखमली , मुलायम और रूई की फाँक जैसा आराम ,
बिना रोक टोक और बंधन के , 
जी सकती थी , फिर क्यों नहीं समझती ये नादान।  

धम्म से गिरती है कठोर धरातल पर , 
दर्द से उछलती है कई बार , 
फिर जैसे समझौता कर लेती है , 
धरा से मिलकर जैसे अपना अस्तित्व समाहित कर देती है।  

धरातल मिलकर बूँद के साथ , 
अपने को सजा लेता है , 
प्रंशसा फिर उसी की होती है , 
"बूँद " की किस्मत में तो सिर्फ त्याग होता है।  

नासमझ धरातल फिर भी अपनी अकड़ में रहता है , 
जैसे इसको अपना अधिकार समझता है , 
मगर उसका ये गुरूर तब टूटता है , 
वो "बूँद " जब सैलाब बनता है।  



Thursday, August 16, 2018

श्री " अटल " बिहारी बाजपेयी को विनम्र श्रदांजलि




बस इतना पता है , 
खाली हाथ आया था ,
खाली हाथ ही जाऊँगा , 
मिलेगा जो भी इस बीच में जहाँ से ,
दर्द मिले या सुकून ,
इज्जत मिले या दुत्कार ,
कुछ नहीं ले जा पाउँगा ,
यादों की गठरी ,
जब तक हूँ , 
उठाता रहूँगा ,
जीवन के इस कारवाँ में ,
एक मुसाफिर ही तो हूँ , 
एक दिन किसी मोड़ पर , 
सबसे बिछुड़ जाऊँगा , 
छोड़ जाऊंगा तो शायद ,
कुछ शब्दों की लड़िया ,
कुछ अपने बोल , 
कुछ सुलझे, 
कुछ उलझे, 
लगा लेंगे अर्थ अपने अपने , 
जिन्हे समझना होगा , 
अपने जीने के अर्थ को , 
शब्दों में ढाल जाऊंगा, 
कोई भूला भटका पहचान ले अगर ,
शायद उसका सफर आसान कर जाऊँगा, 
नाम से मत याद रखना मुझे , 
कर्मो से अपने एक लकीर खींच जाऊँगा , 
"अटल" सत्य में एक न एक दिन , 
मैं " अटल " भी समां जाऊँगा।


Saturday, August 11, 2018

चुनाव आने वाले है


विपक्ष जब हर बात में मीनमेख  निकाले ,
बात बात में सरकार को घेरे ,
धरना और हड़ताल जब रोज होने लगे ,
तो समझ जाना चुनाव आने वाले है। 

मुख्य मुद्दों से सरकार जब ध्यान भटकाए ,
अनर्गल विषयो पर बात बढ़ाये ,
उपलब्धियां अपनी न गिनाकर ,
पिछली सरकारों पर ठीकरा फोड़े ,
तो समझ जाना चुनाव आने वाले है। 

नेताजी की अपने चुनाव क्षेत्र में सरगर्मी बढे ,
हाथ जोड़े वो सबसे मिले ,
आलिशान गाड़ी छोड़ जब वो गली गली में चक्कर मारे ,
पैंतरेबाजी सब आजमाये ,
तो समझ जाना चुनाव आने वाले है। 

मीडिया जब शहादत की रिपोर्ट पर कुछ न कहे ,
किसान भले ही आत्महत्या करे ,
ये धर्म , जाति , वर्ण , संप्रदाय पर बहस करे ,
दिन रात मजमा जमाये एक दूसरे पर कीचड़ उछाले ,
"लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि" नारा जब गूंजने लगे ,
तो समझ जाना चुनाव आने वाले है। 

गली गली , सड़क सड़क जब पोस्टरों से अटने लगे ,
कुछ अनजान से चेहरे आपके आगे  हाथ जोड़ने लगे ,
रोज़ रोज़ जब वादों की नयी झड़ियाँ लगने लगे ,
सत्ताधारी और विपक्ष का खजाना खुलने लगे ,
तो समझ जाना चुनाव आने वाले है। 

Thursday, August 2, 2018

रोज़ लिखता हूँ


जो थोड़े से शब्द है , 
उनको पिरोकर कुछ लिख लेता हूँ , 
भावनाओ की स्याही से , 
कागज पर कभी आँसू , कभी मुस्कान रख देता हूँ। 

उड़ते रहते है ये कागज मेरे कमरे में , 
मैं भी जानबूझकर इन्हे खुला रखता हूँ , 
किसी पन्ने से आँसू टपकते है , 
किसी पन्ने पर कहकहे लगते है।  

शायद ज़िन्दगी भी तो ऐसी ही है , 
जहाँ आँसू और हँसी साथ साथ चलते है , 
कुछ यादों की गठरी , कुछ ख्वाब कल के , 
आज में हम यहीं तो जीते है।  

कुछ कवितायेँ , कुछ कहानियाँ रचता रहता हूँ 
शब्दों की दुनिया में "फ़कीर " जैसा लगता हूँ , 
सीखता रहता हूँ शब्दों को करीने से सजाना , 
कभी तो बोल उठेंगे "मेरे शब्द" भी - इस उम्मीद में रोज़ लिखता हूँ।