ये बारिश की बूँदे कितनी मनचली है ,
देखो ! कैसे बेबाक और बेख़ौफ़ बरसती है ,
इसको चिंता नहीं धरा के प्यास की ,
देखो, ये आसमान में कैसे अठखेलियाँ खेलती है।
इन्हे न अपना घर छोड़ने का मलाल ,
वो मखमली , मुलायम और रूई की फाँक जैसा आराम ,
बिना रोक टोक और बंधन के ,
जी सकती थी , फिर क्यों नहीं समझती ये नादान।
धम्म से गिरती है कठोर धरातल पर ,
दर्द से उछलती है कई बार ,
फिर जैसे समझौता कर लेती है ,
धरा से मिलकर जैसे अपना अस्तित्व समाहित कर देती है।
धरातल मिलकर बूँद के साथ ,
अपने को सजा लेता है ,
प्रंशसा फिर उसी की होती है ,
"बूँद " की किस्मत में तो सिर्फ त्याग होता है।
नासमझ धरातल फिर भी अपनी अकड़ में रहता है ,
जैसे इसको अपना अधिकार समझता है ,
मगर उसका ये गुरूर तब टूटता है ,
वो "बूँद " जब सैलाब बनता है।