लोकतंत्र की जब अवधारणा की होगी ,
कितनी गजब रही होगी ,
जनता से ,
जनता द्वारा ,
जनता के लिए ,
सेवक चुने जायेंगे ,
सोचकर ही जनता की बाँछे खिली होंगी।
हम ही शासक ,
हम ही प्रजा ,
हमारे कानून ,
हमारे नियम ,
कोई भेदभाव नहीं ,
सबको समान अवसर ,
किताबो में यही परिभाषा उकेरी होगी।
यथार्थ में ,
नेता ही सबकुछ ,
नया क्षत्रप हो गया ,
जनता की भागीदारी ,
बस वोट तक सीमित ,
बाकि लोकतंत्र , किताबो तक ही रह गया।
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