वो
ठुकराया सा
बड़ा पत्थर
,
यूँ
ही न
जाने नदी
किनारे सालो
से पड़ा
था ,
तोड़ने
की कोशिश
बहुत की
,
मगर
वो बड़ा
कठोर था
,
टूटता
ही नहीं
था ,
जैसे
कोई जिद्द
हो ,
हठ
हो ,
किसी
ने उसे
हटाकर वहाँ
खेत बनाना
चाहा ,
कोई
उसे तोड़कर
अपना घर
बनाना चाहता
था ,
मगर
न वो
टूटा ,
न
हिला ,
बस
पड़ा रहा
,
फिर
बर्षो बाद
भयंकर बारिश
आयी ,
नदी
में उफान
आया ,
भयंकर
उफान ,
नदी
भी उसके
अगल बगल
से गुजरी
,
फिर
उसके ऊपर
भी चढ़ी
,
उसके
इनारे किनारे
जड़े खोदी
,
लेकिन
कुछ न
हुआ ,
नदी
का घमंड
टूट गया
,
जब
पानी उतरा
,
वो
पत्थर ज्यू
का त्यूं
खड़ा था
,
अगर
वह हिल
जाता तो
शायद ,
उस
तरफ का
कच्चा
तटबंध पूरा
,
टूट
जाता ,
मगर
उस पत्थर
ने जिद
से ,
नदी
को धार
मोड़ने को
मजबूर कर
दिया ,
नदी
अब भी
देखती है
उसे दूर
से ,
और
वह ,
अब
भी शान
से खड़ा
है वही
,
हाँ , और थोड़ा बड़ा भी हो गया।