हाँ
, तुम पहाड़ी
नदी हो
,
उच्श्रंखल , उन्मुक्त
मनमौजी
, अपनी रौ
की हो
,
बलखाती
इठलाती , कितनी
बेपरवाह हो
,
हां
, तुम पहाड़ी
नदी हो।
जिसने
जुर्रत की
तुम्हे रोकने
की ,
कहाँ
ठहरती हो
,
अनदेखा
, अनसुना कर
,
मौज
में बहती
हो ,
हाँ
, तुम पहाड़ी
नदी हो।
जो
साथ चला
,
उसको
गजब रंग
रूप दे
देती हो
,
जो
राजी नहीं
साथ चलने
को ,
किनारे
लगा , बेबाक
बहती हो
,
हाँ
, तुम पहाड़ी
नदी हो।
कल
कल तुम्हारा ये संगीत ,
वीराने
में भी
गूँजती हो
,
लाज
नहीं आती
तुमको ,
पत्थरो
से भी
अठखेलियाँ करती
हो ,
हाँ
, तुम पहाड़ी
नदी हो।
कैसे समझे दुनिया स्वछंदता तुम्हारी ,
प्रकृति तुम्हारी कैसे हजम करे ,
दम्भ है बहुत,
कैसे ये स्वीकार करे ,
लेकिन तुम याद रखना ,
पहाड़ी नदी हो,
बहती रहना ।
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