सबको
ही लुभाते थे ,
आज़ादी
थी वहाँ , किस्से तमाम बनते थे।
जब
पढ़ाया जा रहा होता था ,
इतिहास
का कोई महत्वपूर्ण पाठ ,
आँखे
उनीदी सी हो जाती थी।
जब
सुलझाया जा रहा होता था ,
गणित
का कोई सवाल ,
आँखे
बाहर मैदान में गड़ी होती थी।
जब
विज्ञान शिक्षिका बताती थी ,
न्यूटन
के नियम ,
वहाँ
से सब पर नजर जाती थी।
जब
अंग्रेजी के शिक्षक ,
बारी
बारी से पढ़ने को कहते थे कोई लेसन ,
अंतिम
बेंच तक आते आते लेसन ख़त्म हो जाता था।
किस्सागोई
के तमाम हिस्से ,
इन्ही
बेंचो में बनते थे ,
बदलाव
के विचार यही पनपते थे।
वह
अंतिम बेंच , महज एक बेंच नहीं थी
क्रांति
स्थल था ,
खाली
समय में सबका वही अड्डा था।
शोध
करो तो पता लगता है ,
अंतिम
बेंच पर बैठने वाले निठ्ठले , नकारा या कमजोर नहीं थे ,
असल में , दुनिया बदलने वाले यही बच्चे थे ।
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