एक चौराहे का बरगद ,
सब देख रहा था ,
बरगद था , इसीलिये बचा था ,
समय का इक लम्बा दौर ,
उसके चारों ओर मढ़ा था ,
हर झूलती शाख उसकी ,
इतिहास की गवाह थी ,
हर जड़ पर जैसे उसके ,
शताब्दियाँ गढ़ी थी ,
हर दौर की निशानियाँ ,
उसके तनों में अंकित थी ,
वो बूढ़ा बरगद ढह जाना चाहता था ,
उसने हवाओं से मिन्नतें की थी ,
न जाने कितने जीवों का आसरा वो ,
उसे शिकायत सिर्फ इंसानो से थी ,
इंसानी चरित्र को वो रोज़ ,
बदलते देख रहा था,
जिस डाल पर बैठा वो ,
उसी को काटते देख रहा था,
अब वह अपनी जड़ें तक सूखा देना चाहता था ,
पता है उसको अब ,
उस जगह को भी खुदना है अब ,
जहाँ वो सहस्त्रों साल से खड़ा था ,
एक नयी सड़क गुजरनी है अब वहाँ से ,
बुलडोजरों की धड़धड़ाहट से ,
वो अब धीरे -धीरे सूख रहा था।