" मांगो , राधा -कुछ भी माँगो ,
मैं तुम्हे सब कुछ दे सकता हूँ ,"
द्वारकादीश बोले बूढ़ी राधा से ,
राधा एकदम निहार रही थी ,
द्वारकादीश में "कान्हा " ढूँढ रही थी ,
खोई हुई मग्न यादों में ,
" माँगो ,राधा , माँगो " से चेती थी ,
कृष्ण आप द्वारकादीश हो ,
जानती हूँ -सब दे सकते हो ,
मैं “द्वारकादीश” से कुछ नहीं चाहती ,
"कान्हा " बन कुछ दे सकते हो तो बोलो ,
बँसी पर क्या वही तान छेड़ सकते हो ?
कान्हा ने मुरली अधरों से लगायी ,
तान छेड़ी राधा सुध-बुध खो बैठी ,
कान्हा बंद चक्षु सुर छेड़ गए ,
स्वरलहरियों में राधा समाई ,
नेत्र खुले जब द्वारकादीश के ,
राधा कहीं नजर न आई ,
ध्यान गया जब बाँसुरी पर ,
हल्की बाँसुरी जरा भारी पाई ,
कृष्ण हौले से मुस्कराये ,
राधा -कृष्ण के प्रेम ने अंततः गति पायी।
( ऐसा वर्णित है कि राधा वृद्धावस्था में कृष्ण से मिलने
द्वारका गयी थी और वही उनके अलौकिक और दिव्य प्रेम का पटाक्षेप हुआ था , जो भौतिक न
होकर आध्यात्मिक प्रेम था। )
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