Saturday, November 15, 2025

बूढ़ी अम्मा

 

पहाड़ सी ज़िन्दगी हो गयी ,

सब कुछ होते हुए भी कुछ न था ,

सब छोड़कर अकेले उसे ,

पहाड़ ही कर गए थे। 

 

जिद्दी अम्मा भी थी ,

कितना समझाया था उसे ,

चली जा तू भी वही ,

न जाने क्यों पहाड़ों से इतना लगाव था। 

 

हिस्से उसके संघर्ष के क्या आया था ,

रोज़ पहाड़ जैसी मुसीबतें ,

उकाव -हुलार चढ़ते -उतरते ,

हाथों से लकीरें भी गायब थी। 

 

अम्मा रोज़ डूबते सूरज को ,

हुक्का पीते हुए निहारती थी ,

आज रात ही निकल जाये प्राण ,

अगले दिन खेतों में मिलती थी। 

 

अपने बाड़ -खुड़ों से उसे अथाह प्रेम था ,

किसी में पालक , किसी में प्याज ,

नन्ही -नहीं क्यारियों में कपोल फूटती थी ,

अम्मा मन ही मन संतुष्ट होती थी। 

 

लौकी और गद्दुऐ सूखा रखे थे घर की छत पर,

 पीली ककड़ियों  की बड़िया बनाती थी ,

खुद का कल का पता नहीं था ,

पूरे ह्यून बिताने का इंतजाम करती थी। 

 

एक दिन सच में रात को सोई ,

सुबह उठी ही नहीं ,

बड़िया छत में ओंस में भीग गयी ,

और पालक तुश्यार से मुरझा गयी। 

 

अम्मा चुपचाप चली गयी ,

और सब कुछ छोड़ गयी ,

बच्चे भी अम्मा की चिंता से फरांग हो गये ,

गाँव वालों ने कहा - बुढ़िया तर गयी। 

 

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