Thursday, April 6, 2017

शब्द कम

शब्द कम ,
भाव बहुतेरे ,
दिल ग़मगीन ,
देखकर मंजर ,
उमड़ घुमड़ रहे हैं विचार अनेक ,

आशा लिखूं ,
निराशा लिखूं ,
कुछ खोने का दर्द लिखूं ,
चंद सिक्के मिले जो उनकी खनक लिखूं ,

यादो का पिटारा खोलूँ ,
वर्तमान का सच लिखूं ,
या भविष्य का कुछ खाका बुनू ,

लिखना तो आदत हैं मेरी ,
बिना लिखे रह भी पाउँगा ,
आड़े तिरछे पिरोकर चंद शब्दो को ,
शायद अधूरी कविता ही लिख पाउँगा। 

फिर भी नाउम्मीदी में उम्मीद को तरजीह देता हूँ ,
घुप्प अँधेरे में प्रकाश की एक लकीर देखता हूँ ,
हर ज़िन्दगी के संघर्ष में ,
उसकी आँखों में एक नयी तस्वीर देखता हूँ। 

उस उदास सूरज को अस्त होते देखता हूँ ,
चाँद को अपनी मुंडेर से झांकते देखता हूँ ,
चहचाहट फिर उन पंछियो की ,
हर सुबह पहली किरण के साथ सुनता हूँ। 

ज़िन्दगी पर फिर रोज़ भरोसा सा होता हैं ,
निकल पड़ता हूँ घर से ,
दिन भर ज़िन्दगी की तमाम उलझने देखता हूँ ,
किसी के चेहरे पर सुकून ,
किसी के चेहरे पर मासूमियत ,
किसी को सब कुछ पा लेने की चाहत ,
किसी को 'कुछ होने पर भी' मस्त देखता हूँ। 

हर रोज़ नए किस्से ,
नई कहानियां ,
नए गीत बनते देखता हूँ। 

कैसे लिखूं और क्या क्या लिखूं ?
शब्द कम ,

भाव बहुतेरे।  

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