कुछ पाने की खातिर निकला,
पीछे बहुत कुछ छूट गया ,
ज़िन्दगी को बेहतर बनाने निकला ,
ज़िन्दगी का मतलब भूल गया।
अब रोज़ फासले बढ़ते जा रहे हैं ,
हम मशीन बनते जा रहे हैं ,
जिस ज़िन्दगी को पाने निकले थे इक दिन ,
उससे दूर रोज़ जा रहे हैं।
खुशियाँ मिल रही हैं जरूर ,
मगर न जाने क्यू फीकी सी लग रही हैं ,
शायद इस भागभागम में ,
"डायबिटीज " हो गयी हैं।
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