उसका आँगन गूजता था बच्चों के शोर से , वो दोड़ती थी बच्चों के पीछे ,
शोर से आसमान गूजता था,
बच्चों के साथ उस माँ का वक़्त यु ही गुजरता था,
माँ सोचती थी कब बच्चे बड़े होंगे और उसके सपने भी पूरे होंगे,
सोचते सोचते बच्चे कब बड़े हुए, उसको भी पता ना चला.
सब निकल गए घर से एक दिन, उसका आँगन सूनसान हुआ.
आज वो संभालती है हर याद को , निहारती हैं अपनी दीवारों को,
हर जगह से उसके बच्चों की यादे जुडी पड़ी हैं.
वो आँखों से आँसू पीकर चुपचाप ज़माने से लड़ती हैं.
आती हैं कोई खबर दूर परदेश से, तो आसूँ छलका देती हैं,
रात को सोने से पहले , ना परेशां हो मेरे बच्चे , अपने बच्चों के बिछुडन का दर्द सहती हैं.
करती हैं कभी सवाल ज़िन्दगी से , फिर खामोश हो जाती हैं.
नियति को यही था मंजूर , पल्लू ढाके सो लेती हैं.
लगाती हैं जब हिसाब किताब ज़िन्दगी का, खोने का पलडा भारी पाती हैं.
हर रोज़ फिर आस में जीती हैं, काश कुछ ऐसा कर दे भगवान ,
किल्कारिया फिर सुना दे भगवान, भर दे फिर उसका आँगन,
अब जहाँ सूनेपन की आवाज़ भी सुनाई देती हैं.
वो बुडी माँ का दर्द ना जाने भगवान भी नहीं सुनता हैं,
वो पथराई आँखों से फिर भी हर जगह अपने बच्चों के निशान खोजती हैं.
बच्चे जब तक दर्द समझे , वो बिछुरन की आदी हो जाती हैं.
अब उसको कोई दर्द नहीं सालता , वो बैरागी हो जाती हैं.
मत करना भगवान किसी माँ को उसको बच्चों से दूर,ये सजा जीते जी मरने की हैं,
तेरा रूप हैं वो धरती पर , ये सजा मंजूर नहीं हैं.