कौन सुलझाये इस ज़िन्दगी की उलझन को, बस सब लगे पड़े हैं.
सोचा क्या था सबने कभी, बस अब सब गुजार रहें हैं.
हवा हो गए वो सपनो के महल, भीड़ से अलग दिखने की चाहत,
बस अब भीड़ का हिस्सा बन कर रह गए हैं.
ज़िन्दगी की उलझन में , हम खुद से कहीं खो गए हैं.
जब देखते हैं आइना कभी, खुद से कभी सवाल करते हैं,
चले थे किस और हम, कहाँ हम पहुच गए हैं.
ज़िन्दगी के इस पशोपेश में ,बस खिलौना बन कर रह गए हैं.
No comments:
Post a Comment