Friday, September 3, 2010

कागजों की आपबीती ..........

कागजों के एक सेमीनार में,


सब करेंसी नोट की किस्मत से जल रहे थे,

सब अपनी अपनी बारी से अपनी किस्मत का रोना रो रहे थे,

अखबार वाला कागज़ अपनी दुविधा बता रहा था,

किताबो का कागज़ अपने पर पड़ी धूल को हटा रहा था.

लेकिन सब करेंसी नोट के कागज़ की बोलने की बारी का इंतज़ार कर रहे थे,

आखीर में करेंसी नोट का कागज़ सजा धजा मंच पर पहुचने को तैयार हुआ ,

मंच तक पहुचने के छोटे से रास्ते में ही हजारो ने उसको ललचाई नजरो से घूरा.

छीना झपटी से बचता बचाता वो मंच तक पंहुचा.

तालियों की गूँज से उसका बड़ा स्वागत हुआ.

वो सहमा सहमा माइक तक जा ही पंहुचा,

" मुझे यु मत देखो ललचाई नज़रों से,

अब कुछ भी बचा नहीं हैं मुझमे,

कितने लोगो के पास रह कर गुजरी हूँ में,

गिनती भी कम पड़ गयी हैं गिनने में,

तुम सब मेरी किस्मत पर जल रहे हो,

मगर हकीकत बिलकुल उलटी हैं,

मैं तुम्हे खुशकिस्मत समझती हूँ,

तुम किसी एक के पास रहकर सजती तो हो,

मैं तो कभी इस हाथ में, कभी उस हाथ में,

कभी किसी की तिजोरी में, कभी किसी के जेब में.

एक जगह कभी टिक नहीं सकती,

किसी को अपना कह नहीं सकती,

मुझ पर घर तोड़ने के आरोप लगते हैं,

भाई भाई आपस में मेरे लिए लड़ते हैं.

मुझे ही दुनिया वाले सबसे बड़ा समझते हैं.

सारे दुनिया के बुरे काम मुझसे ही होते हैं.

लोगो को मुझे पाने के लिए दिन रात एक करते देखती हूँ,

बच्चो को उनके अपनों से दूर होते सोचती हूँ,

में न चाहते हुए भी सबमे शरीक हूँ,

मुझसे पूछो तो में सबसे गरीब हूँ. "

सब स्तब्ध रह गए नोट की आपबीती सुन कर,

सन्नाटा पसर गया सारे हॉल पर.
 
(फिर क्या हुआ, अगले भाग में ................पढते रहिये )

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