आबो हवा कुछ बदली सी हैं , कोहरे की चादर ओढे सुबह रो रही हैं !
सूरज अपनी किरणे भेजता तो हैं , ये अजीब सी धुंध अपने अंदर सोख रही हैं !!
फक्र होता था जिन हवाओ पर कभी , आज वही जहरीली सी क्यों हैं ? !
लगता हैं कही कुछ साजिश हैं , हवाओ को कैद करने की मंशा तो नहीं हैं ? !!
आँखे लहूलुहान , फेफड़ो का दम घुट रहा हैं !
कही इसके लिए हम सब तो जिम्मेदार नहीं हैं ? !!
प्रक्रति तो अपने तय नियमानुसार ही चलती हैं !
जैसे करोगे वैसा भरोगो - बार बार कहती हैं !!
हवाओ ने भी अब सीधा सबक सिखाने की ठान ली हैं !
दंभ और आडंबर ओढ़े हम इंसानो को अपनी करनी याद दिला दी हैं !!
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