जब तुम मेरे पास नहीं थी ,
मैं तुम्हारे होने के सपने देखता था
,
सोचता था अक्सर ,
तुम मिल जाओगी ,
तो मेरा जीवन सुधर जायेगा ,
ज़िन्दगी की तमाम खुशियाँ मेरे ,
दामन में आ बिखरेंगी ,
और जीवन कितना सुहाना हो जायेगा।
तुम आयी ,
जैसे मेरे पंखो को परवाज लग गए ,
सपने मेरे जैसे हकीकत में बदल गए ,
इज्जत में ऐसी बढ़ोत्तरी हुई ,
हम भी क़ाबिलो की कतार में खड़े हो गए।
मगर ,
धीरे धीरे न जाने क्यों तुमसे बेरुखी
सी होने लगी ,
न जाने क्यों रोज चिंता की लकीरें माथे
पर पड़ने लगी ,
उस मय्यसर की चाहत धीमी पड़ने लगी ,
अपने को रोज़ एक कैदखाने में बंद सा
पाने लगा ,
रोज़ एक ही ढर्रे पर चलने से मन उकताने
लगा।
फिर ,
दिमाग में एक अलग फ़ितूर सा छाने लगा
,
हरदम अपने को ठगा सा महसूस होने लगा
,
समय तुम्हारे साथ कुछ ज्यादा गुजरने
लगा ,
एक डर सा हरदम साया बनकर रहने लगा
,
"तुम बनी रहो " हर तिकड़म
करने लगा।
परिणाम ,
तुम्हे साथ लेकर चलना मजबूरी बन गयी
,
"तुम्हारे न होने" की सोचकर
भी रूह घबराने लगी ,
घर-बार , रिश्ते -नाते सब दूर होने
लग गए ,
समय की कमी अब हरदम सताने लगी ,
खुद को साबित करने की ,
हर रोज़ एक नयी " जंग " होने
लगी।
अब ,
बने रहें दोनों हर हाल में ,
मैं तो तेरा बिना अधूरा ,
तेरी चाहत में खड़े है लोग कई ,
मन , बेमन - अब कोई मायने नहीं रखता
मेरे लिए ,
"नौकरी " तू बनी रहना - यही
प्रार्थना मेरी।