मेरी साँस तुझसे ,
रहमते तुझसे ,
कण कण तुझसे
,
तेरी दी हुई ज़िन्दगी
पर ,
फिर "मैं " कैसे ?
तू हँसाये ,
तू रुलाये ,
गिरु गर कभी तो
,
तू सँभाले ,
फिर " मैं " कहाँ टिके ?
तू आधार ,
तू निराकार ,
तू जगतव्यापि ,
तुझसे सारा संसार ,
फिर "मैं " का भ्रम कैसे
?
जब कभी " मैं
" छाता है ,
मुझे तेरा ख्याल आता है ,
हे ! जग के स्वामी
,
“अहं” मेरा काफूर हो जाता है।
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वाह...”मैं” को अच्छा परिभाषित किया आपने। ये मैं और अहं ही सभी क्लेश की, असंतोष की जड़ है।
ReplyDeleteGreat, आज की पीढ़ी में मैं और मैं
ReplyDeleteWah!
ReplyDeleteAmazing! Superb!