Tuesday, March 26, 2019

" मैं "




मेरी साँस तुझसे ,
रहमते तुझसे ,
कण कण तुझसे ,
तेरी दी हुई ज़िन्दगी पर ,
फिर "मैं " कैसे ?

तू हँसाये ,
तू रुलाये ,
गिरु गर कभी तो ,
तू सँभाले ,
फिर " मैं " कहाँ टिके ?

तू आधार ,
तू निराकार ,
तू जगतव्यापि ,
तुझसे सारा संसार ,
फिर "मैं " का भ्रम कैसे ?

जब कभी " मैं " छाता है ,
मुझे तेरा ख्याल आता है ,
हे ! जग के स्वामी ,
“अहं” मेरा काफूर हो जाता है। 

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3 comments:

  1. वाह...”मैं” को अच्छा परिभाषित किया आपने। ये मैं और अहं ही सभी क्लेश की, असंतोष की जड़ है।

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  2. Great, आज की पीढ़ी में मैं और मैं

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