नदी, नाले, गधेरे, पहाड़, जंगल
आपसे कुछ नहीं कहेंगे ,
मगर जब आप उनका हक़ छीनोगे ,
इक दिन एक झटके में सब ले लेंगे।
सहने की भी इक सीमा होती है ,
वो उससे ऊपर भी सह जाते है ,
असहनीय अतिक्रमण हो जाता है जब ,
वो भी अपना गुस्सा जाहिर करते है।
कुदरत जानती है संतुलन बनाना ,
वो उसका नैसर्गिक स्वभाव है ,
जरूरतें तो पूरी कर सकते है ये सब ,
लालच का तो इनके पास भी नहीं कोई समाधान।
No comments:
Post a Comment