बैठा था उतुंग शिखर " कनखेधार " पर इक दिन ,
सामने हिमालय का दृश्य था ,
मनोरम , अति मनभावन ,
स्वर्ग सरीखा लग रहा था।
कल कल करती कोसी नदी ,
सर्पीली होकर मद हरण करती अटल अडिग पहाड़ो का ,
अपने लय में शोर करती ,
शिवालय के जैसे पग पखार रही थी।
रवि की आभा से हिमालय नए नए रंग बिखेरता ,
चीड़ के पेड़ो से लदे जंगल ,
छोटे छोटे सीढ़ीनुमा खेतो पर किसान ,
एक जोड़ी बैलो को लेकर अपना पसीना बहा रहा था।
दूर एक सड़क पर कुछ पो -पो की आवाज़ ,
इस शांत माहौल में जैसे खलल डाल रही थी ,
छितरे छितरे से गाँव ,
हर गाँव के जंगल में मंदिर,
जैसे हर गाँव का अपना अपना भगवान लग रहा था।
सांझ हुई , उतरा नीचे
हिमालय भी अब सोने लगा था ,
अजीब अजीब छायाचित्रों से ,
अब जंगल भयावह लग रहा था।
टिमटिमाते तारे संगी ,
चंद्र किरणे राह दिखा रही थी,
नीचे जाकर फिर देखा " कनखेधार " को ,
वो जैसे मुस्करा रहा था।
आओ कभी , बैठेंगे फिर " कनखेधार "
जीवन का कुछ मर्म समझेंगे ,
जीवन की रफ़्तार के बीच ,
कुछ पल हम सिर्फ प्रकृति के साथ रहेंगे।
( कनखेधार मेरे गाँव - कोटुली , जिला - अल्मोड़ा , उत्तराखंड का एक पहाड़ हैं जिससे हिमालय का विहंगम दृश्य दिखाई देता हैं , वास्तविक अनुभव को शब्दों में ढालने का प्रयास किया हैं। )
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