अंतर्मन की बड़ी दुविधा है
,
किस राह को अब चुनु ?
दिल और दिमाग की जोर आजमाइश
है ,
चौराहे में खड़ा अब किस ओर चलूँ
?
आते है जीवन में क्षण ऐसे
, पैर ठिठक जाते है
इस राह चलूँ की , उस राह चलूँ।
भटक रहा मन जीवन पथ पर ,
यक्ष प्रश्न बन कर उभर रहा
,
मरीचिका सा भविष्य सामने ,
मार्ग कौन सा चुनूँ - दिल घबरा
रहा।
मन और मस्तिष्क के इस अन्तर्युद्ध
में ,
शरीर बस कटपुतली बन रहा ,
किस राह पर चलूँ अब ,
किंककर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहा।
चलना तो नियति है ,
इसके बिना कहाँ फिर गति है
,
मुझे ही इससे पार पाना होगा
,
जहाँ मन लगे , वहाँ जाना होगा।
मेरा जीवन मेरी थाती है ,
भूलकर सब , नव प्राण फूँकना
होगा ,
चल चलाचल , वैतरणी को ,
खुद ही पार करना होगा।
Very nice... I was looking for the word किंकर्तव्यविमूढ़ and found this fabulous poem.
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