Saturday, December 30, 2017

अन्तर्युद्ध


अंतर्मन की बड़ी दुविधा है ,
किस राह को अब चुनु ?

दिल और दिमाग की जोर आजमाइश है ,
चौराहे में खड़ा अब किस ओर चलूँ ?

आते है जीवन में क्षण ऐसे , पैर ठिठक जाते है
इस राह चलूँ की , उस राह चलूँ। 

भटक रहा मन जीवन पथ पर ,
यक्ष प्रश्न बन कर उभर रहा ,
मरीचिका सा भविष्य सामने ,
मार्ग कौन सा चुनूँ - दिल घबरा रहा। 

मन और मस्तिष्क के इस अन्तर्युद्ध में ,
शरीर बस कटपुतली बन रहा ,
किस राह पर चलूँ अब ,
किंककर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहा। 

चलना तो नियति है ,
इसके बिना कहाँ फिर गति है ,
मुझे ही इससे पार पाना होगा ,
जहाँ मन लगे , वहाँ जाना होगा। 

मेरा जीवन मेरी थाती है ,
भूलकर सब , नव प्राण फूँकना होगा ,
चल चलाचल , वैतरणी को ,
खुद ही पार करना होगा।  

1 comment:

  1. Very nice... I was looking for the word किंकर्तव्यविमूढ़ and found this fabulous poem.

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