अब
बस इतना
ही ज़िंदा है
हम ,
की
सिर्फ अपनी फिक्र
कर सके ,
दुसरो
की चिंता वो
खुद करे ,
उनसे
कोई लेना देना
क्यों रखे हम।
ये
मानव जीवन का
उत्थान है या
पतन ,
आधुनिकता
के नाम पर
भौंडापन ,
किसी
का दिल अब
दूसरे के लिए
नहीं पसीजता ,
अपने
काम से काम
रखो - बार बार
कहता है मन।
भीड़
में भी अकेला
सा हो गया
है ,
सहमा
सहमा और डर
से किस कदर
मन ,
बात
बात में नाक
चढ़ रही है
,
कितना
स्वार्थी हो गया
है जीवन।
हर
चीज समेटने
को आतुर ,
भाग
रहा हर समय
तन मन ,
आँखे
उनींदी सी , बैचैन
मस्तिष्क
थका
हुआ शरीर , सिसकियाँ
ले रहा जीवन।
भरोसा
सब से उठ
रहा ,
नाते
-रिश्ते बोझ लगने
लगे ,
तिलिस्मी
सी दुनिया में
,
हम
कैद होने लगे।
साँसे
अब भी ले
रहा है जीवन
,
हर
सांस अब बनावटी
सी क्यों लगे
,
कुछ
तो घुल गया
है हवाओ में
,
हर
वक्त घुटन
में जीने क्यों
लगे ?
वक्त
अभी है ठहरा
,
कह
रहा - चेत सके
तो चेत ले
,
सदियाँ
गवाह है ,
धरती
वही रही , हमारे
“कर्म” सभ्यताएँ ले डूबे।
चित्र साभार - गूगल
No comments:
Post a Comment