न जाने कहाँ से लुढ़कते लुढ़कते ,
किनारे लगा था वो बड़ा सा पत्थर ,
किसी रोज़ जब नदी में बाढ़ आयी थी ,
बहुत कोशिशों से कोई न हटा पाया था ,
उस पत्थर ने एक तरफ नदी की धार रोक दी थी ,
सब की उलाहना सहते सहते वो भी तंग था ,
"मेरी फूटी किस्मत " रोज़ रोता था ,
फिर आदत हो गयी उसे किनारे पर रहते रहते ,
नदी ने जमा कर दी थी गाद चारों ओर उसके ,
बच्चे आते थे , चढ़कर उसपर नदी में छलाँग मारते थे ,
वो रोज़ नदी को बहते देखता और ,
पुराने दिनों की यादों में खो जाता ,
फिर एक चौमास घनघोर बारिश हुई ,
नदी ने विकराल रूप धारण किया ,
जो मिला रास्ते में , सब निगल लिया ,
जब टकरायी उस शिला से,
बहुत वेग लगाया , खूब जोर लगाया ,
एक बार पत्थर का भी जी ललचाया ,
वो तो बहने के इन्तजार में ही पड़ा था,
मगर अचानक से उसे ख्याल आया ,
उसे सहारा मान नदी के उस किनारे ,
लहलहा रही थी फसलें ,
कुछ मकान बन चुके थे ,
सोचकर उसने अपना इरादा बदल लिया ,
नदी जितना वेग लगाती उसे उखाड़ने को ,
वो उतना ही धँसता गढ़ता चला जाता,
नदी ने समझाया , बुझाया उसको ,
साथ बहने की हिदायत दी ,
मगर टस से मस न हुआ वो हठी ,
अड़ा रहा और सारा पानी उतर गया ,
बच्चे -बड़े सब कहने लगे ,
इस "शिला" ने सबको बचा लिया,
शिला को अपना ठहरने का उद्देश्य समझ आ गया ,
दुत्कारें सब दुआओं में बदल गयी ,
शिला की तबसे पूजा होने लगी ,
कुछ भी बिना उद्देश्य के नहीं है जगत में ,
सबका इक प्रारब्ध है ,
वक्त का बस इन्तजार रहता है ,
अकारण इस जगत में कुछ भी नहीं।