कब , कहाँ , किसको , किसकी पड़ी है ,
तन कहीं , मन कहीं, दिमाग की बत्ती बुझी पड़ी है ,
कहने को अकेले का ही सफर है "आनन्द" यहाँ ,
नन्ही सी गाड़ी में न जाने कितने सवारियों की जिम्मेदारी
है।
जिम्मेदारी तक तो ठीक ,
उम्मीदों का बोझ भारी है ,
मन गिरवी चंद पैसों खातिर ,
दिमाग में ख्याली पुलाव है ,
तन तरसता थोड़ा सुस्ताने को ,
पिछड़ने का डर लाज़मी है ,
अपने दुःख तो सहे जाते है ,
दूसरों के सुःख का दुःख ज्यादा हावी हैं।
जरूरतें तो कम ही है ,
इच्छाओं का ही कोई अंत नहीं है ,
जब तक अप्राप्य है , तभी तक धुन है ,
मिल गया तो फिर वह तुच्छ समान है ,
स्वर्ग की तलाश में भटक रहे सब ,
हर कोई परेशान और खुद हैरान है ,
संतोष किस चिड़िया का नाम है " आनन्द ",
भागते रहना ही तो जिंदगी का दूसरा नाम हैं।
भागना नहीं, कर्म करते करना यही जिंदगी है और गीता का ज्ञान भी।
ReplyDeleteSuperb
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