निकल पड़ा हूँ लेखन यात्रा में , लिए शब्दों का पिटारा ! भावनाओ की स्याही हैं , कलम ही मेरा सहारा !!
Tuesday, October 31, 2017
Monday, October 30, 2017
Thursday, October 26, 2017
दुनिया के उसूल
बदल लिए है दुनिया ने उसूल ,
आप भी बदल लीजिये ,
सच्चाई और ईमानदारी के झोले में ,
थोड़ा झूठ और थोड़ा बेईमानी भर लीजिये।
लद गए वो दिन जब सच्चे और ईमानदारों की ,
क़द्र और तरक्की होती थी ,
देख लीजिये अपने इर्द गिर्द ,
सबसे पहले इन्ही की बेइज़्ज़ती होती है।
नहीं रहा वो दौर अब ,
जमाना बदल गया है ,
होते थे पहले भी पाखंडी ,
मगर अलग से पहचाने जाते थे ,
अब दौर अलग है ,
कौन , कहाँ , किस मोड़ पर ,
टकरा जाये - पहचानना असंभव है।
अब कर्मो के फल की चिंता नहीं होती ,
भले - बुरे की श्रेणी अलग नहीं होती ,
अपने फायदे के लिए सब जायज़ लगता है ,
हर रिश्ता अब स्वार्थ से गढ़ता है।
इंसानियत अब जैसे किताबो तक ही सिमट गयी है ,
शरीफो की बेइज्जती सरेआम हो रही है ,
बुजुर्गो के आत्मसात कायदे कानूनों की ,
आधुनिकता के नाम पर बलि चढ़ रही है।
बदल लिए है दुनिया ने उसूल ,
आप भी बदल लीजिये ,
सच्चाई और ईमानदारी के झोले में ,
थोड़ा झूठ और थोड़ा बेईमानी भर लीजिये।
नहीं बदल सकते अपने उसूल ,
तो आइये स्वागत हैं मेरे स्कूल ,
कठिन डगर है मगर ,
दिल को मिलता है बड़ा सुकून।
पग -पग में रोड़े होंगे ,
कुंठा के घेरे होंगे ,
नाते रिश्तेदार सब मुहँ मोड़ेंगे ,
लेकिन हम चैन की नींद सोयेंगे।
न खोने की ज्यादा चिंता होगी ,
न बहुत कुछ पाने का लालच ,
जो मिलेगा राहे -ए - ज़िन्दगी ,
उसी में हँसी ख़ुशी ज़िन्दगी जी लेंगे।
करेंगे अपना काम सिद्दत से ,
काम से अपनी पहचान बनायेंगे ,
दुनिया बदल ले भले अपने उसूल ,
हम "जो सही है " उसी ऱाह चलेंगें।
नहीं बदल सकते अपने उसूल ,
तो आइये स्वागत हैं मेरे स्कूल ,
कठिन डगर है मगर ,
दिल को मिलता है बड़ा सुकून।
पग -पग में रोड़े होंगे ,
कुंठा के घेरे होंगे ,
नाते रिश्तेदार सब मुहँ मोड़ेंगे ,
लेकिन हम चैन की नींद सोयेंगे।
न खोने की ज्यादा चिंता होगी ,
न बहुत कुछ पाने का लालच ,
जो मिलेगा राहे -ए - ज़िन्दगी ,
उसी में हँसी ख़ुशी ज़िन्दगी जी लेंगे।
करेंगे अपना काम सिद्दत से ,
काम से अपनी पहचान बनायेंगे ,
दुनिया बदल ले भले अपने उसूल ,
हम "जो सही है " उसी ऱाह चलेंगें।
Tuesday, October 24, 2017
कैसे कहूं - ज़िंदा है हम
मन बेचैन ,
दिमाग में उथल पुथल
दौड़ता भागता तन ,
न इधर , न उधर
भविष्य की चिंता में ,
आज पिस रहा ,
बिताये अच्छे दिनों की याद
,
आँखों की कोरे नम ।
हाय ! ये कैसा जीवन,
कैसे कहूं - ज़िंदा है हम।
किसी दूसरे की परवाह नहीं
,
अपने संकटो से ही जूझ रहा मन
,
टिक टिक समय बीत रहा ,
न इधर के , न उधर के रहे हम।
भावनाओ के लिए वक्त नहीं ,
कुंठा उठाये रखे है फन ,
जितना पास है उसमे संतोष नहीं
,
पता नहीं क्या चाहता है मन।
हाय ! ये कैसा जीवन,
कैसे कहूं - ज़िंदा है हम।
बनावटी हँसी अधरों में ,
नहीं पसीजता किसी की लाचारी
पर मन ,
बाहर से जितना कठोर बनता ,
अंदर सारा खोखलापन।
स्वार्थ हर जगह पैर पसारे
,
रिश्ते नाते निभा रहे बेमन
,
झूठी शान का बढ़ रहा चलन ,
लालच घर कर रहा ,
ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी की दुश्मन ।
हाय ! ये कैसा जीवन।
कैसे कहूं - ज़िंदा है हम।
Sunday, October 22, 2017
Tuesday, October 17, 2017
Thursday, October 12, 2017
मोमबत्ती
ये मोमबत्ती भी न बड़ा तंग करती है ,
जलने के बाद अपनी बचे हुए धाँगे और ,
पिघले मोम से जगह गन्दा कर देती है ,
किया क्या इसने ?
अँधेरे में रौशनी देने के सिवाय ,
अपने को जलाया ही तो है ,
सब ताप सहन करने के बाद ,
नियति ही इसकी ऐसी थी ,
खुरच दो इसके सब निशाँ ,
कही भी कुछ रह न जाये ,
जगह चाहिए बिलकुल साफ़,
जब फिर अँधेरा होगा ,
जला लेंगे दूसरी मोमबत्ती ,
क्या कमी है हमारे पास।
Wednesday, October 11, 2017
ज़िन्दगी
हर किसी के लिए ज़िन्दगी के
मायने अलग ,
किसी के लिए चक्रव्यूह ,
किसी के लिए मृगतृष्णा ,
किसी के लिए काँटो का ताज
,
किसी के लिए फूलो की सेज ,
किसी के लिए संघर्ष गाथा ,
किसी के लिए भाग्य का खेल,
किसी के लिए अंतहीन दौड़ ,
किसी के लिए मोक्ष ,
किसी के लिए प्यार -मोहब्बत
,
किसी के लिए रंजिश का सफर
,
हर किसी के लिए ज़िन्दगी के
मायने अलग।
गरीब के लिए दो वक्त की रोटी
,
अमीर के लिए ऐशो आराम का जीवन
,
प्रेमी के लिए प्रेयसी ,
प्रेयसी के लिए प्रेमी जीवन
,
रोगी के लिए स्वास्थ्य ,
निरोगी के लिए भरपेट भोजन
,
माँ के लिए उसके बच्चे जीवन
,
पिता के लिए बच्चो का भविष्य जीवन ,
दोस्तों के लिए दोस्ती ,
दुश्मनो के लिए दुश्मनी ,
हर किसी के लिए ज़िन्दगी के
मायने अलग,
ऐ ! ज़िन्दगी तेरे इतने रूपों
को नमन।
कलाकार के लिए रंगमंच ,
खिलाडी के लिए खेल ,
कवि के लिए कविता ,
लेखक के लिए कहानी ,
नेता के लिए कुर्सी ,
किसान के लिए फसल ,
छात्रों के लिए पढाई ,
बच्चो के लिए मौज मस्ती
नौकरीपेशा के लिए सैलरी ,
बेरोजगारो के लिए नौकरी ,
सैनिको के लिए देशभक्ति ,
एक ज़िन्दगी , कितने रंग ,
शायद इसलिए कहते है रंगीन ज़िन्दगी।
कोई इसे क्षणभंगुर कहता ,
कोई ठोस धरातल ,
कोई नदी की संज्ञा देता ,
कोई कहता मरुस्थल।
कोई कहता खूबसूरत ,
कोई कहता दलदल ,
कोई कहता आज़ादी ,
कोई कहता सफर।
किसी के लिए जिम्मेदारियां
,
कोई अपने में ही मस्त मगन
,
ज़िन्दगी एक , रूप अनेक ,
ज़िन्दगी देने वाले तुझे शत
शत नमन।
मेरी नजर में बहती नदी है ज़िन्दगी
,
कही से शुरू होकर ,
कही दूर सागर में मिलना है
ज़िन्दगी ,
इस सफर में कही चंचलता ,
कही ठहराव ,
कही तेज बहाव ,
कही गहराई ,
कही कंकड़ पत्थरो में लुढ़कती ज़िन्दगी ,
कही पूजा योग्य ,
कही तिरस्कृत ,
कही उफान ,
कही शांतचित ,
लेकर अपने साथ कितने अनुभव
,
कुछ खट्टे , कुछ मीठे ,
सागर में मिलने से पहले ,
अविरल बहाव ही शायद है ज़िन्दगी।
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Monday, October 9, 2017
दिवाली के पटाखे और मिठाई
दीये बेचकर कुछ पैसे लेकर ,
वो मासूम अपने माँ से बोली ,
" माँ , आज दिवाली है ,
हम भी मनाते है ,
कुछ मिठाई और पटाखे हम भी लाते हैं। "
माँ ने उससे पैसे लिए और
हिसाब किताब करने लगी ,
और बोली ,
" सारे दीये तुझे तीन सौ रुपये में बेचने को बोला था ,
तू उन्हें दो सौ रुपये में ही बेच आयी ,
अब कहाँ से खरीदू पटाखे और मिठाई ?"
बेटी रुँआसी सी बोली ,
" अम्मा , सबने तय कीमत से कम बोली लगाई
किसी ने दो रूपये , किसी ने पाँच रुपये कम कीमत चुकाई ,
इसलिए तीन सौ रुपये के दीये दो सौ रुपये में ही बेच पाई। "
माँ बोली ,
" चल , कोई बात नहीं ,
डेढ़ सौ रुपये में घर चला लूंगी ,
पचास रुपये ले , भाई को साथ ले जा ,
जमकर लाना पटाखे और मिठाई। "
वो भाई का हाथ पकड़ बाजार चल दी ,
अब उसे मोलभाव करने की आज़ादी मिल गयी ,
बाजार में खो सी गयी ,
चंद पटाखे और कुछ लड्डू लेकर ,
दस रुपये माँ को लौटाती बोली ,
" अम्मा , शुभ दीपावली। "
वो मासूम अपने माँ से बोली ,
" माँ , आज दिवाली है ,
हम भी मनाते है ,
कुछ मिठाई और पटाखे हम भी लाते हैं। "
माँ ने उससे पैसे लिए और
हिसाब किताब करने लगी ,
और बोली ,
" सारे दीये तुझे तीन सौ रुपये में बेचने को बोला था ,
तू उन्हें दो सौ रुपये में ही बेच आयी ,
अब कहाँ से खरीदू पटाखे और मिठाई ?"
बेटी रुँआसी सी बोली ,
" अम्मा , सबने तय कीमत से कम बोली लगाई
किसी ने दो रूपये , किसी ने पाँच रुपये कम कीमत चुकाई ,
इसलिए तीन सौ रुपये के दीये दो सौ रुपये में ही बेच पाई। "
माँ बोली ,
" चल , कोई बात नहीं ,
डेढ़ सौ रुपये में घर चला लूंगी ,
पचास रुपये ले , भाई को साथ ले जा ,
जमकर लाना पटाखे और मिठाई। "
वो भाई का हाथ पकड़ बाजार चल दी ,
अब उसे मोलभाव करने की आज़ादी मिल गयी ,
बाजार में खो सी गयी ,
चंद पटाखे और कुछ लड्डू लेकर ,
दस रुपये माँ को लौटाती बोली ,
" अम्मा , शुभ दीपावली। "
Thursday, October 5, 2017
टेक्नोलॉजी और इश्क
टेक्नोलॉजी ने कमाल कर दिया ,
आज के इश्क को कितना आसान कर दिया ,
कबूतर और चिट्ठियों के दौर को पीछे छोड़ दिया ,
मोबाइल ने सब काम आसान कर दिया।
दूरियाँ सात समंदर की भी हैं तो क्या हुआ ?
व्हाट्सएप्प के वीडियो कॉल ने रूबरू कर दिया ,
फिर भी मिलना ही हैं तो ,
मेट्रो , एयरोप्लेन , कार से कही भी घंटो में पहुँच गया।
अब न सताती याद किसी की ,
तुरंत सेल्फी खींची और भेज दिया।
उपहार देना हो गर कुछ तो ,
ऑनलाइन आर्डर देकर सीधा उसके घर पहुँचा दिया।
गया वो जमाना जब छुप छुप कर मिलना होता था ,
शॉपिंग मॉलों के एयर कण्डीशनएड माहौल ने हल कर दिया ,
अब कोई नहीं डर फोटो या चिट्ठियां पकडे जाने का ,
एंड्राइड में पासवर्ड ने सब कुछ छुपा लिया।
टेक्नोलॉजी ने कमाल कर दिया ,
आज के इश्क को कितना आसान कर दिया ,
कबूतर और चिट्ठियों के दौर को पीछे छोड़ दिया ,
मोबाइल ने सब काम आसान कर दिया।
Tuesday, October 3, 2017
यादो का गलियारा
उन गलियों में जाना हुआ ,
जहाँ कभी हमारी सपनो की दुनिया बसती थी ,
उन पगडंडियों में फिर कदम पडे ,
जिन पर जगह जगह हमारे बनाये निशान अब भी पड़े थे।
उस नदी के ऊपर पुल से गुजरना हुआ ,
जिस नदी को हम पैंट को घुटने तक मोड़कर हँसते पार करते थे ,
उस मैदान से रूबरू हुए ,
जिस मैदान पर हम कभी चौक्के - छक्के लगाते थे।
उस शिवालय के आगे से गुजरना हुआ ,
जिसमे हम कभी घंटो बैठ भागवत सुना करते थे ,
उस चाचा से बात हुई ,
जिसके पेड़ो के फल हम चुराये करते थे।
वो चीड़ के पेड़ को भी देखना हुआ ,
जिसमे कभी हम खुरच कर अपना नाम खोद आये थे ,
नाम अभी भी लिखा हुआ था ,
मगर अक्षर अब बड़े हो चुके थे।
वो पहाड़ की चोटी को चढ़ने की हिम्मत न हुई ,
जिसमे हम कभी न जाने दिन में कितनी बार चढ़ जाते थे ,
वो सीढ़ीनुमा खेत जो अब डराते है ,
कभी हम उनमे कूदम - कूद खेलते थे।
वो पहाड़ की चोटी को चढ़ने की हिम्मत न हुई ,
जिसमे हम कभी न जाने दिन में कितनी बार चढ़ जाते थे ,
वो सीढ़ीनुमा खेत जो अब डराते है ,
कभी हम उनमे कूदम - कूद खेलते थे।
नजरे उन तमाम यादो को ढूँढ रही थी ,
जो कही न कही दिमाग में बहुत गहरी थी ,
लगा जैसे वक्त का पहिया रुक सा गया ,
मेरा बचपन , मेरा गाँव मुझे फिर से मिल गया।
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