मन बेचैन ,
दिमाग में उथल पुथल
दौड़ता भागता तन ,
न इधर , न उधर
भविष्य की चिंता में ,
आज पिस रहा ,
बिताये अच्छे दिनों की याद
,
आँखों की कोरे नम ।
हाय ! ये कैसा जीवन,
कैसे कहूं - ज़िंदा है हम।
किसी दूसरे की परवाह नहीं
,
अपने संकटो से ही जूझ रहा मन
,
टिक टिक समय बीत रहा ,
न इधर के , न उधर के रहे हम।
भावनाओ के लिए वक्त नहीं ,
कुंठा उठाये रखे है फन ,
जितना पास है उसमे संतोष नहीं
,
पता नहीं क्या चाहता है मन।
हाय ! ये कैसा जीवन,
कैसे कहूं - ज़िंदा है हम।
बनावटी हँसी अधरों में ,
नहीं पसीजता किसी की लाचारी
पर मन ,
बाहर से जितना कठोर बनता ,
अंदर सारा खोखलापन।
स्वार्थ हर जगह पैर पसारे
,
रिश्ते नाते निभा रहे बेमन
,
झूठी शान का बढ़ रहा चलन ,
लालच घर कर रहा ,
ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी की दुश्मन ।
हाय ! ये कैसा जीवन।
कैसे कहूं - ज़िंदा है हम।
सच मशीनी होती जिंदगी के बीच जिंदगी कैसी
ReplyDeleteबहुत सही
वाह क्या बात मेहरा साहब
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