Thursday, August 31, 2017

फ़साना -ए -ज़िन्दगी

कुछ आजमाइशें ज़िन्दगी की , 
कुछ ख्वाहिशें  मेरी , 
कुछ तरन्नुम के फ़साने  , 
कुछ ज़िन्दगी की  बेजारगी , 

बस फकत फ़साना ए ज़िन्दगी है ये , 
कभी वो मुझे कोसे , 
और कभी मैं उसे ,
कभी मैं खिलखिलाऊ , 
कभी उसकी हँसी छूटे।  

चलते रहते हैं हम दोनों , 
एक दूसरे का हाथ थामे , 
कभी वो मुझे संभाले , 
कभी मैं हौंसला बढ़ाते।  



Wednesday, August 16, 2017

चक्रव्यूह


ज़िन्दगी की कुछ उलझने सुलझाने निकला , 
और उलझनों का इजाफा हो गया,   
घुस तो गया उलझनों में , 
सुलझाते सुलझाते चक्रव्यूह में घिर गया।    

कुछ उलझने बिना बात की थी , 
कुछ छोटी से उलझने -बवाल निकली , 
कुछ तो सिर्फ मेरे दिमाग में थी , 
और कुछ कई सवालो का जवाब निकली।  

अधिकतर उलझनों का हल  मेरे पास ही था , 
पहल मैं ही क्यों करूँ ? पर अटका था , 
कुछ मेरे संकोचो ने  और कुछ मेरी "मैं " ने , 
आज मुझे इस इस चक्रव्यूह में फँसा दिया था।  

अब निकलना तो मुझे ही होगा , 
अपने को संतुलित करना होगा , 
खुले दिमाग से सोचना होगा ,
"मैं" के खोह से निकलना होगा।  

शायद तभी इस चक्रव्यूह को भेद पाउँगा , 
"मैं" अकेला सब कुछ नहीं हूँ , 
"अहम " का मुझे त्याग करना होगा,
मुझे जीवन यात्रा में बहुतो का साथ चाहिए होगा।   

Monday, August 14, 2017

आज़ादी के सत्तर वर्ष


आज़ादी को सत्तर वर्ष बीत गए
हम अभी तक  धर्म संप्रदाय में उलझे रहे
दुनिया ने तरक्की के नए आयाम गढ़  लिए
हम अभी तक  " बेटी बचाओ" में फंसे रहे।  

हम मेहनत की कमाई से टैक्स भरते रहे
वो हमारे पैसो से मौज उड़ाते रहे।  
हम जनता " भाईचारा " बनाते चले
वो " फूट  डालो " की नीति पर चलते रहे
आज़ादी को हमारे सत्तर वर्ष बीत गए।  

जनता के लिए - जनता द्वारा - जनता से
सरकार को हमारी सत्तर साल हो गए
गरीब जनता से चुने हुए उसके ही प्रतिनिधि
जाने कब से उसकी किस्मत के "ठेकेदार" हो गए
देखते देखते - आज़ादी को हमारे सत्तर वर्ष बीत गए।

हो सके तो इस दिवस पर - तिरंगे को ध्यान से देखना
इसके लाल रंग में करोडो का बलिदान देखना , 
हरे रंग में सबकी खुशहाली देख लेना , 
चक्र से सबकी प्रगति का मंत्र सीख लेना , 
ध्वज को थामे हुए अपने को देख लेना , 
आज़ादी का सही मतलब खुद ही समझ लेना।  



Tuesday, August 1, 2017

रेत की घडी




हसरतो का हौंसला तो देखो ,
एक पूरी तो दूसरी तैयार रहती हैं।  
भागते भागते इनके पीछे , 
पूरी ज़िन्दगी बीत जाती हैं।  

शायद यही ज़िन्दगी को गति देती हैं , 
कदमो को रुकने नहीं देती हैं।  
धीरे धीरे रेत की घडी की मानिंद , 
ज़िन्दगी हाथ से फिसलती जाती हैं।