Sunday, December 26, 2010

हर साल ........

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादे जोड़ कर,

हर साल यु ही चुपके से गुजर जाता है.

जब तक हम समझने लगते उस साल को,

दिसंबर सामने आ जाता हैं.

फिर नए साल के उत्साह में,

पुराने साल को भुला कर,

नए साल के लिए नए ताने बाने बुनते हैं,

नए सपनो को पूरा करने के लिए,

नए साल का गर्मजोशी से स्वागत करते हैं.

फिर समय का पहिया घूमता जाता हैं,

कब बीत गया एक और साल ,

दिसंबर में याद आता हैं.

( Happy New Year -2011 )

Tuesday, November 16, 2010

सिसकिया लेती ज़िन्दगी ........

सुबह उठे , तैयार हुए और बैग पकड़ा और चल दिए.

दिन भर सर सर कहते बिताया और शाम को फिर बैग लेकर चल दिए.

बस में धक्का मुक्की के बाद पसीना पोछते हुए घर पहुच गए.

और निढाल होकर चारपाई में लेट गए.



बीवी ने कुछ पूछा तो झला दिए, बेटे ने एक सवाल पूछा तो उसको हड़का दिए.

मम्मी ने पूछा " बेटा ! क्या हुआ? "

उसको भी बिना कुछ बताये टी वी देखने बैठ गए.

रात का खाना खाया और फिर सो गए.



रोज़ की इस दिनचर्या से कम कितना उकता गए,

ज़िन्दगी जो कभी हमारी थी, सच में कितना पराया कर गए.

हफ्ते के छ दिन ऑफिस को दे दिए और सातवा दिन जिसे संडे कहते है ,

थकान मिटाने में गुजार दिए.



अब कहाँ बचा कुछ सोचने को, कुछ समय परिवार के साथ बिताने को,

सपने में भी कभी बॉस की डांट सुनायी देती हैं,

टार्गेट पूरा नहीं होने का डर रात को भी जगा देती हैं.

सच में ज़िन्दगी अब बस सिसकिया लेती हैं.................

Thursday, November 11, 2010

अब भी मेरे गाँव में ऐसा होता है....................

इस दिल्ली शहर में घर से दो मिनट भी निकलते हैं,

तो पहले ताला चाबी दूंदते हैं.

मेरे गाँव में हम दो दिन के लिए बाहर जाते हैं ,

तो पडोसी चाची को जरा घर देख देना कह खुला छोड़ जाते हैं.

इस शहर में पिछले दो सालो से रहते हुए भी में अपने पडोसी को नहीं जानता,

मेरे गाँव में अब भी कोई नया आ जाए तो,

उसे कोई भैया, कोइ चाचा , तो कोई ताऊ कह कर रिश्ता जोड़ते हैं.

यहाँ शहर में घूमने के लिए हम पार्क दूंदते हैं,

मेरे गाँव में हम कोई नया घर बने तो खुश होते हैं.

इस शहर में १०० मीटर भी जाना तो हम रिक्श्वा वाले को दूंदते हैं,

मेरे गाँव में हम कई किलोमीटर पैदल ही नाप लेते हैं.

इस शहर में बिना ए सी और पंखे के गुजारा नहीं होता,

मेरे गाँव में कोई घर पंखा लगाये तो हम हंसते हैं.

इस शहर में अब ओवेन में खाना बनाते हैं,

मेरे गाँव में चूल्हे में अब भी रोटिया सेंकते हैं.

इस शहर में स्कूल फाईव स्टार हो गए हैं,

मेरे गाँव की पाठशाला में अब भी बच्चे दरी में बैठ कर ख्वाब बुनते हैं.

इस शहर में पेड़ खोजने से मिलते हैं,

मेरे गाँव में अब भी जंगल में जाने से डरते है.

इस शहर में थोडा सर्दी जुकाम भी हो जाये तो डॉक्टर के पास जाते हैं.

मेरे गाँव में अब भी काडा पीकर काम चलाते हैं.

इस शहर से लोग मेरे गाँव में ट्रेकिंग करने के लिए जाते हैं,

मेरे गाँव के लड़के उच्चे उच्चे पहाड़ो को बात बात में नाप आते हैं.



( मैं मूलत उतराखंड के अल्मोड़ा जिले के छोटे से गाँव कोटूली से तालुक रखता हूँ जो जीविका चलाने के लिए दिल्ली में रह रहा हूँ.)

Wednesday, November 10, 2010

एक कदम

" तू चल तो सही अपने कदम,

हर हालत में कही न कही पहुच ही जायेगा.

बैठा रहेगा एक जगह पर तो,

वही पर रह जायेगा.

कदम छोटे ही भले ही चल,

मगर कदमो को रुकने मत दे,

नदी की तरह खुद अपने रास्ते बना लेगा.

कदमो को गर जरुरत पड़े तो थोडा विश्राम दे,

मगर एक जगह पर टिक अपने मंजिल से अपने को दूर मत कर.

चल चला चल ......कदमो से अपने कितनो के लिए रास्ते बनाता चल. "

Thursday, November 4, 2010

शुभ दीपावली

“प्रकाश के इस त्यौहार में,

जगमग रहे जीवन.

तिमिर का नाश हो,

फैले उजियारा सर्वत्र,

आशाओं के दीप जले,

उम्मीदों के गुलशन खिले,

जीवन का हर पल महके,

हर पल में खुशियों के दीप जले. "

Monday, November 1, 2010

दिल्ली मेट्रो + राजीव चौक = सांस लेने को जगह नहीं .........

कल ऑफिस से घर को निकला. ६:१५ पर ओखला स्टेशन से मेट्रो पकड़ी और आराम से सेंटर सेक्त्रैअत पंहुचा. फिर उधर से कश्मीरी गेट के लिए मेट्रो पकड़ी , थोडा भीड़ थी. राजीव चौक पर जैसे ही मेट्रो का गेट खुला , लगा जैसे तूफ़ान आ गया हैं. पहले तो उतरने वालो की धक्का मुक्की और फिर चड़ने वालो ने ऐसा कोहराम मचाया की पूरे कोच में सांस लेने की लिए जगह नहीं बची. जिन लोगो को न्यू दिल्ली उतरना था, वो कश्मीरी गेट पर ही उतर पाए.

इ.श्रीधरन साहब का आरामदायक सफ़र दिन पर दिन दर्दनाक होता जा रहा हैं, कुछ अहितियात नहीं बरते गए तो कुछ दिन बाद ये खबरें आएँगी की राजीव चौक से ट्रेन में चढ़ कर कुछ लोगो के दम घुटने से मौत हो गयी.

मेट्रो ट्रेन को मेट्रो ट्रेन ही रहने दे, लोकल ट्रेन न बनाये. अगर आप सोचे की राजीव चौक से ट्रेन पकड़नी हैं तो सावधान हो जाये. बेहतर हैं बस से ही घर चले जाए.

Sunday, October 31, 2010

पार्क ........

पार्क में खेल रहे एक दादा पोते को में बड़े ध्यान से देख रहा था. अचानक पोता दौड़ते दौड़ते गिर पड़ा और रोने लगा , दादा बेंच में बैट्ठे रहे तो पोता उनकी तरफ देख कर फिर जोर जोर से रोने लगा. अबकी बार दादा ने उसकी तरफ से अपना ध्यान हटाया और पेड़ की पत्तियों को गिनने की एक्टिंग करने लगे. पोता उठा और दादा के पास आ गया और फिर से रोने लगा और दादा की उंगली पकड़ के उस जगह ले गया जहा वो गिरा था. दादा ने उस जगह पर जो गड्ढा बना था उसको बगल से मिटटी ले कर भर दिया और बोले, " बेटा, अब इस जगह कोई बच्चा नहीं गिरेगा. " बच्चे ने भी देखा देखि अपनी नन्ही उंगलियों से मिटटी ला कर दल दी और खुश हो गया.


इस बात से मुझे अपनी सुबह की घटना याद आ गयी जब मेरी बिटिया एक झूले से गिर पड़ी और मैंने अपनी बिटिया को समझाने के लिए झूले को दो चार हाथ पैर मारे और बोला, " ले बेटा , इसने आपको गिराया, मैंने इसको मार दिया. हिसाब किताब बराबर. "

अब मुझे अपने समझाने और उस बुजुर्ग के समझाने में अंतर समझ आ गया. मैं मन ही मन मुस्कराता रह गया.

Monday, October 18, 2010

बचपन से सीखो ज़िन्दगी जीना..

" काश ! खुदा मुझसे कहता किसी रोज़,


बता तुझे सीखना हो अपनी बीती ज़िन्दगी से ,

तो वो क्या होगा?

मैं कहता खुदा से,

"मुझे फिर से मुझे मेरे बचपन में पंहुचा दे,

इस ज़िन्दगी की दौड़ भाग से,

थोड़ी सी आज़ादी दिला दे.

न सुकून हैं यहाँ, बस दौड़ हैं आगे और आगे की ,

मुझे मेरे बचपन के वो अल्हड दिन फिर दिला दे.

छोटी छोटी बातो में रूठने और बिना किसी बात पर,

जोर जोर से ठहाके लगाना फिर से सीखा दे.

यु बिना काम के घंटो घूमना फिरना ,

बिना सोचे समझे दिल की बात कहलाना सिखा दे.

बिना किसी भेदभाव के किसी से दोस्ती कर लेना,

माँ की डाट को एक कान से सुनकर दूसरी कान से निकालना सीखा दे.

पापा अगर किसी बात पर लगा भी तमाचा तो,


अगले ही पल फिर उनसे किसी बात के लिए जिद करना सीखा दे.

आगे क्या होगा , कैसे होगा की फिक्र छोड़ बस उस वक़्त में जीना सीखा दे. "

Monday, September 20, 2010

बिना बात के फासले .....

" कुछ ही दिन हुए तो उनसे हाल चाल न पूछे हुए,


बस फिर फासला बढता गया.

हम क्यों करे पहल ,

वो क्यूँ नहीं कर सकते !

दिन यू ही फिसलते चले गए.

कुछ भी न हुआ था दरम्यान,

बस दूरियों के फासले बढते चले गए.

कुछ भी हो, अपनों से बात करते रहिये,

कभी काम की तो कभी यु ही कर लीजिये,

दूरियां बिना बात की यु न बढेगी,

दुनिया में कभी भी अपनों की कमी न खलेगी. "

Monday, September 13, 2010

" आज हिंदी दिवस हैं,-१४ सितम्बर "

" आज हिंदी दिवस हैं, "


सुबह जागते ही अपनी पत्नी को कहा ,

हैप्पी हिंदी दिवस.

थोड़ी देर में अपनी गलती का एहसास हो गया,

हिंदी दिवस पर भी हैप्पी हिंदी दिवस बोल गया.

हिंगलिश का ये कैसा असर हो गया हैं हम पर,

मात्र भाषा ही भूल गए हम सब.

हर आदमी चाहता हैं,

बस उसको अंग्रेजी आ जाये,

हिंदी तो लोकल लोग बोलते हैं,

हम इंग्लिश बन जाए.

इस सम्रद्ध भाषा के अब कम ही ज्ञानी रह गए हैं,

कुछ लोग अँगरेज़ और कुछ हिंगलिश हो गए हैं.

कितनी बड़ी बिडम्बना हैं,

अपनी राज्यभाषा को मनाने के लिए ,

हमें उसका दिवस मनाना पड़ रहा हैं.

मेरे जैसे कट्टर हिंदी समर्थक भी,

अब हिंगलिश बोलने में शान समझ रहे है.

हिंदी तड़प रही हैं अपने ही नौनिहालों के बर्ताव से,

धीरे धीरे दम तोड़ रही हैं हिंगलिश और इंग्लिश के प्रभाव से.

Saturday, September 11, 2010

रास्ते से एक दिन खुदा जा रहे थे......

रास्ते से एक दिन खुदा जा रहे थे,

मुझे देख कर आँख चुरा रहे थे,

मैं भी कम न था,

पकड़ ही लिया अगले नुक्कड़ पर,

बैठा दिया एक चाय के खोमचे पर,

कुछ इधर उधर की बाते की,

फिर मैं लाइन पर आ ही गया,

पूछ ही डाला सवाल खुदा से,

जिससे एक बार तो खुदा भी सकपका गया,

मैंने पूछा , " अपनी ही बनायीं दुनिया में,

यु छुपे- चुप्प घूम रहे हो "

चाय का घूँट शायद गले में ही अटक गया,

दर्द उनकी आँखे में आ गया,

" सोच कर क्या बनायीं थी मैंने दुनिया,

ये हाल क्या हो गया.

दुनिया बनाने से थोडा थक कर सो गया था,

लेकिन अंदाज़ा न था, इतनी देर में सब कुछ बदल जायेगा,

रचनाकार को खुद ही आसरा दूंदना भारी हो जायेगा."

मैंने सोचा अब अपना दर्द बता कर क्यूँ परेशान खुदा को करू,

खुद ही संभल जाऊंगा, खुदा को चाय के चुस्कियो के बीच ही छोड़ दिया.



 

चल खुदा, मेरे साथ चल...

" चल खुदा, मेरे साथ चल, तुझे तेरी ही दुनिया दिखाता हूँ.


तुने जो भी सोचा था, हकीकत में दिखाता हूँ.

तुने तो सबको एक सा बनाया था, मगर फर्क कितना , समझाता हूँ.

कोई तो भूखा मरे , और कही खजाने भरे पड़े.

तुने तो सबको प्यार करना सीखाया, मगर यहाँ तो भाई भाई से लड़े.

तुने कितने जतन से बनाई दुनिया, मगर तेरे ही बन्दे इसकी तस्वीर बदले.

तुने तो एक धर्म बनाया मानवता का, यहाँ तो कितने पंथ बने.

अब तो तुझे भी कई नाम दे दिए, एक तू निरंकार अब तेरे हजारो नाम हुए.

तुझे बंद कर इट के दरवाजो में, तेरे नाम से कितने घर जले.



चल खुदा ! मेरे साथ चल, तुझे तेरी ही दुनिया दिखाता हूँ.

जो तेरा नाम रोज़ ले, मुशीबत में वो ही पड़े,

जो करे आज तमाशा , हाथ दुनिया उसी को जोड़े.

सच में तुने भी रचना करने के बाद इस दुनिया की सुध नहीं ली.

सब कुछ बना दिया है अच्छा, ये सोच आँखे मूद ली.

तेरे ही बन्दों ने देख तेरी दुनिया की हालत बदल दी. "

Thursday, September 9, 2010

कागजो की आपबीती ....( दूसरा भाग)

सुनकर करेंसी नोट के कागज़ की दास्तान,

सारे हो गए हैरान,

जिसे सारे अब तक बड़ा खुशकिस्मत समझ रहे थे,

उसी पर अब सारे तरस खा रहे थे,

अश्रुपूर्ण नयनो को लेकर जब वो नीचे उत्तरी,

चुपचाप जाकर अपनी सीट पर बैठी,

जो अब तक उसे ललचाई नज़रो से देख रहे थे,

अब वो बगले झांक रहे थे.

हर चीज़ जो चमकती है, सोना नहीं होती ,

एक दुसरे के कान में कह रहे थे.

वो भी अपनी बिरादरी की ही हैं,

उसके दुःख में सारे शरीक हो रहे थे.

किसी की किस्मत और हैसियत से जलो मत,

वो भी आग में तप कर उस जगह काबिज़ हुआ हैं.

सब अपनी अपनी जगह राजा हैं,

सबका अपना अलग अलग रास्ता,

जिसका जो काम उसी को भाता हैं,

हर ख़ुशी के पीछे दर्द का बड़ा सैलाब हैं.

Friday, September 3, 2010

कागजों की आपबीती ..........

कागजों के एक सेमीनार में,


सब करेंसी नोट की किस्मत से जल रहे थे,

सब अपनी अपनी बारी से अपनी किस्मत का रोना रो रहे थे,

अखबार वाला कागज़ अपनी दुविधा बता रहा था,

किताबो का कागज़ अपने पर पड़ी धूल को हटा रहा था.

लेकिन सब करेंसी नोट के कागज़ की बोलने की बारी का इंतज़ार कर रहे थे,

आखीर में करेंसी नोट का कागज़ सजा धजा मंच पर पहुचने को तैयार हुआ ,

मंच तक पहुचने के छोटे से रास्ते में ही हजारो ने उसको ललचाई नजरो से घूरा.

छीना झपटी से बचता बचाता वो मंच तक पंहुचा.

तालियों की गूँज से उसका बड़ा स्वागत हुआ.

वो सहमा सहमा माइक तक जा ही पंहुचा,

" मुझे यु मत देखो ललचाई नज़रों से,

अब कुछ भी बचा नहीं हैं मुझमे,

कितने लोगो के पास रह कर गुजरी हूँ में,

गिनती भी कम पड़ गयी हैं गिनने में,

तुम सब मेरी किस्मत पर जल रहे हो,

मगर हकीकत बिलकुल उलटी हैं,

मैं तुम्हे खुशकिस्मत समझती हूँ,

तुम किसी एक के पास रहकर सजती तो हो,

मैं तो कभी इस हाथ में, कभी उस हाथ में,

कभी किसी की तिजोरी में, कभी किसी के जेब में.

एक जगह कभी टिक नहीं सकती,

किसी को अपना कह नहीं सकती,

मुझ पर घर तोड़ने के आरोप लगते हैं,

भाई भाई आपस में मेरे लिए लड़ते हैं.

मुझे ही दुनिया वाले सबसे बड़ा समझते हैं.

सारे दुनिया के बुरे काम मुझसे ही होते हैं.

लोगो को मुझे पाने के लिए दिन रात एक करते देखती हूँ,

बच्चो को उनके अपनों से दूर होते सोचती हूँ,

में न चाहते हुए भी सबमे शरीक हूँ,

मुझसे पूछो तो में सबसे गरीब हूँ. "

सब स्तब्ध रह गए नोट की आपबीती सुन कर,

सन्नाटा पसर गया सारे हॉल पर.
 
(फिर क्या हुआ, अगले भाग में ................पढते रहिये )

Thursday, August 26, 2010

जीवन एक सागर..ज़िन्दगी एक नाव !

जीवन एक सागर..


ज़िन्दगी एक नाव,

हम हैं केवट और हमारा संघर्ष उसकी पतवार,

पतवार संभाले हम भी चल रहें हैं जीवन सागर में,

और करोडो लोग हमारे साथ.

न जाने कहाँ किनारा हैं इस सागर का,

किसी को भी नहीं हैं इसका एहसास.

किसी की नाव गोते खा रही ,

किसी को लहरों का मिल रहा हैं साथ.

कोई लेकर चल रहा अपनों को लेकर साथ,

कोई अकेला ही चप्पू चला रहा और कर रहा मंजिल की तलाश.



हर एक का बस एक लक्ष्य ,

जाना हैं इस सागर के पार,

कोई सीधी रखता हैं पतवार,

कोई हवायो के रुख को देख कर चल रहा अपनी चाल.

कोई तेज चप्पू चलता ,

कोई रखता अपनी मंद चाल.



कितने पीछे छूट रहे इस सफ़र पर,

कितनो का मिल रहा हैं साथ.



जीवन सागर में ज़िन्दगी नाव,

करती जाती कितने पड़ाव पार.



जारी हैं अनंत काल से ये सफ़र ,

पता नहीं कितनो ने पार किया ये सागर,

चलो चलो , आगे चलो ....

शायद हम भी हो जाए उस पार.

Friday, August 20, 2010

चौथा पड़ाव......समय सबसे बलवान

समय का चक्र अपनी गति से घूमता जाता हैं,
कभी सुख , कभी दुःख हर एक को दे जाता हैं.


हर ख़ुशी में ये बात याद रखो, ये पल भी बीत जायेगा !
समय का चक्र हैं, कभी भी पल बदल जायेगा.


दुःख के दिन जरा लम्बे लगते हैं ! घाव जरा धीरे सूखते हैं.
सुख के दिन जरा जल्दी बीतते हैं ! ज़िन्दगी के ये दो पहलू चलते रहते हैं.


समय अपनी गति से चलता रहता हैं !
न वो किसी के लिए रुकता हैं और न अपनी चाल मंद करता हैं.


उसको लिए सब बराबर हैं जगत में, वो किसी के लिए कोई फर्क नहीं करता हैं !
किसी को घाव , तो किसी को मरहम देकर रेत की तरह हर एक की मुट्ठी से फिसलता हैं.

Friday, July 23, 2010

तीसरा पड़ाव.........इच्छा का कोई अंत नहीं

" इच्छा का कोई अंत नहीं,

थोड़े से अब किसी का पेट भरता नहीं,

जो कुछ हैं उसमे अब किसी को संतोष नहीं,

और ज्यादा , ज्यादा की इस दौड़ का कही कोइ अंत नहीं.



जो हैं शायद वो कम हैं , और चाहिए !

मगर कितना चाहिए किसी को इसका पता नहीं.

सबकी की परेशानियों का शायद मूल यही.

और......... और......की इस अंधी दौड़ में,

ज़िन्दगी हर वक़्त सिसकती रही. "

Thursday, July 15, 2010

What is True Relationship?

A boy and a girl were playing together. The boy had a collection of marbles. The girl had some sweets with her. The boy told the girl that he will give her all his marbles in exchange for her sweets. The girl agreed.


The boy kept the biggest and the most beautiful marble aside and gave the rest to the girl. The girl gave him all her sweets as she had promised.

That night, the girl slept peacefully. But the boy couldn't sleep as he kept wondering if the girl had hidden some sweets from him the way he had hidden his best marble.


Moral of the story: If you don't give your hundred percent in a relationship, you'll always keep doubting if the other person has given his/her hundred percent.. This is applicable for any relationship like love, employer-employee relationship etc., Give your hundred percent to everything you do and sleep peacefully.

( I Don’t know who wrote this story, but one of my friend forwarded it to me and I really like it to share it with all my readers)

Wednesday, July 7, 2010

दूसरा पड़ाव ......अंतर्मन की यात्रा .............

खुद पर भरोसा ज्यादा हो गया हैं,
दुसरो से उम्मीदे करना बंद कर दिया हैं .
जीवन पथ के इन रास्तो को ,
अकेले नापने की कवायद शुर कर दी हैं.

मेरे अन्दर खुद खुदा का अंश हैं,
"अहम् ब्र्ह्मष्मी "मंत्र की महता समझ आ गयी हैं.
लेकर साथ अपने अर्धांगिनी और बिटिया को,
जीवन युद्ध में यात्रा अपनी शुरू कर दी हैं.

न किसी से कोई बैर , न किसी से कोई गिला शिकवा,
जीवन पथ के अनजाने सफ़र में हर मुमकिन कोशिश शुरू कर दी हैं.
जीतना हैं इस जंग को हर हाल में ,
मन में ठान ली हैं.

निराशा के बादलो को अपनी उम्मीदों के सूरज से छठा दिया हैं,
विश्वास और संकल्प से हर परिस्थिति से मुकाबला करना हैं.
इश्वर के दिए इस वरदान "जीवन" को,
हर हाल में सार्थक करना हैं. 

Monday, July 5, 2010

पहला मील का पत्थर.............

पीछे मुड़कर देखने की आदत से अब तौबा कर ली हैं.
यादो को बाट  कर, अच्छी यादे सारी गठरी में भर ली हैं.
बुरी यादो को  तिलांजलि दे दी हैं.

जब से निकला हूँ अंतर्मन यात्रा पर,
सोचता हूँ दुनिया उतनी बुरी नहीं हैं.

दुसरो की कमियाँ खोजने से पहले ,
अपनी गिरेबान झाकने की हिम्मत आ गयी हैं.

लगता हैं अब सारा जहाँ मेरे लिए हैं.
एक चेहरे को खोजो, हजार अच्छे चेहरे बगल में ही खड़े हैं. 

अंतर्मन की इस यात्रा में , मैंने बुराईया निकलना छोड़ दिया हैं.
खुद की खोज में एक मील का पत्थर शायद मैंने छू लिया हैं.

Thursday, July 1, 2010

तलाश ..........

निकल पड़ा हूँ खुद को ढूँढने,
अंतर्मन को अपने टटोलने,
हर रोज़ पूछता हूँ खुद से सवाल,
आज कितनी की तुने खुद की तलाश,

यु ही तो रचा नहीं होगा खुदा ने मुझे,
सौंपा होगा कुछ न कुछ नेक काम.
बस उसी अंतर्मन की यात्रा को,
शुरू हो गया हैं मेरा अभियान.
 
 
न कोई गेरुआ वस्त्र, न कमंडल हाथ में ,
न कोई मंदिर मस्जिद के चक्कर ,
दिल मैं रखकर उस खुदा को,
रोज़ सांसारिक जीवन जी कर,
शुरू कर दी अपनी तलाश.........

Thursday, June 24, 2010

मैं कौन हूँ और मेरा मकसद क्या. ?

मैं कौन हूँ, मुझे मुझसे मेरी पहचान करा दे.
भीड़ में खड़ा हूँ, मैं सबसे अलग कैसे हूँ,
ऐ मेरे खुदा मुझे इतना तू बतला दे.
मैं जानता हूँ, तुने मुझे यू ही नहीं भेजा होगा धरती पर,
तू मुझे मेरे मकसद में लगा दे.

यू बेमकसद ज़िन्दगी गुजारी नहीं जाती,
कुछ कर गुजरने की चाहत जीने नहीं देती ,
मगर यू ही वक़्त गुजरता हैं हर रोज़,
मंजिल कौन सी हैं , कहाँ हैं इसका पता नहीं.

हर रोज़ टटोलता हूँ अपने आप को ,
मैं कौन हूँ और मेरा मकसद क्या.

Friday, June 11, 2010

मेरी विवशता .............

पिछले दो हफ्तों से कोई कविता नहीं लिख पाया इसलिए माफ़ी चाहता हूँ.


कोई विषय ऐसा दूंढ नहीं पाया जिस पर शब्दों का जाल बून सकू.

दो चार पंक्तियों से आगे नहीं बड पाया ,

विषय बहुत हैं मन करता हैं सब पर लिखता जाऊ,

मगर कुछ ऑफिस की टेंशन, कुछ और की चिंता,

शब्दों को पिरोने नहीं दे रही,

सुकून से सोच सकू कुछ, हालात कुछ ऐसे बन नहीं रहें.

कविता लिखने के लिए अभी कुछ भी नहीं.


मगर शब्दों की कुलबुलाहट मुझे चैन से रहने भी नहीं देगी,
भावनाओ का ज्वार लेकर में फिर वापस आऊंगा कुछ शब्दों को फिर सार्थक करूँगा.

Tuesday, June 1, 2010

बहन की विदाई ..........

अपनी बहन को शादी के दिन विदा करते हुए,

कितना अपने दिल को समझाया था !

आँखों की कोरे गीली नहीं होने दूंगा ,
रह रह कर मन को समझाया था !

मगर जब विदाई की बेला आई ,
तो खुदबखुद आंसू छलक आये !

उसके साथ बिताये वो हर पल आँखों में तैर गए.
दुनिया की रीत के आगे हम भी झुक गए !

हमारी छोटी सी गुडिया हमें छोड़ के चली गयी ,
हम आँखों में पानी लिए मुस्कराते रह गए !

बचपन से उसकी जवानी तक हम उसके रक्षक बने रहे,
एक दिन फिर एक अनजान से सफ़र पर उसको अकेला विदा कर गए.

(यह कविता समप्रित है सब भाई बहनों को, जिनके बीच स्नेह और प्यार कहा अटूट बंधन होता हैं. )

Monday, May 17, 2010

बेबसी ...........

अपने पापा की किसी बात पर दादी को रोते हुए देखकर,
पोता अपनी दादी के पास गया और बोला,
"दादी ! आपको पापा ने क्यूँ डाटा?
मम्मी तो रोज़ पापा से झगड़ती रहती हैं,
एक के बाद एक गलती करती हैं,
उनको तो पापा नहीं डाटते?"
दादी ने जवाब दिया
" बेटा, तेरी मम्मी पड़ी लिखी, समझदार हैं,
  तेरे पापा उसपर तो गुस्सा नहीं होते हैं,
  सारी भड़ास मुझ पर निकाल देते हैं.
  मैं फिर भी उससे नाराज़ नहीं होती
 क्यूंकि वो मेरा बेटा हैं
 हर माँ की नियति यही हैं,
 पाला पोसा बेटा एक दिन किसी को सौंप देना हैं,
 और फिर यु ही घुट घुट कर जीना हैं." 

Saturday, May 15, 2010

कब आओगे ..........

(पाठको के अनुरोध पर अपनी ही पुरानी रचना को फिर से पोस्ट कर रहा हूँ. )

उसका आँगन गूजता था बच्चों के शोर से , वो दोड़ती थी बच्चों के पीछे

शोर से आसमान गूजता था .

बच्चों के साथ उस माँ का वक़्त यु ही गुजरता था,
माँ सोचती थी कब बच्चे बड़े होंगे और उसके सपने भी पूरे होंगे !

सोचते सोचते बच्चे कब बड़े हुए, उसको भी पता ना चला,
एक - एक कर सब निकल गए घर से एक दिन, उसका आँगन सूनसान हुआ!

आज वो संभालती है हर याद को , निहारती हैं अपनी दीवारों को,
तलाशती हैं हर जगह को जहाँ से उसके बच्चों की यादे जुडी पड़ी हैं.

वो यादों के सहारे ही आँखों के आँसू पीकर चुपचाप ज़माने से लड़ती हैं.
आती हैं कोई खबर दूर परदेश से बच्चों की तो आसूँ छलका देती हैं !

रात को सोने से पहले हर रोज़ प्राथना करती हैं ,
ना परेशां हो मेरे बच्चे, अपने बच्चों के बिछुडन का दर्द सहती हैं.

करती हैं कभी सवाल ज़िन्दगी से , फिर खामोश हो जाती हैं.
नियति को यही था मंजूर , पल्लू ढाके सो लेती हैं.

लगाती हैं जब हिसाब किताब ज़िन्दगी का, खोने का पलडा भारी पाती हैं.
हर रोज़ फिर आस में जीती हैं, उसके बिछड़े एक दिन तो आयेंगे.

काश कुछ ऐसा कर दे भगवान ,किल्कारिया फिर सुना दे भगवान, भर दे फिर उसका आँगन,
अब जहाँ सूनेपन की आवाज़ भी सुनाई देती हैं.

वो बुडी माँ का दर्द ना जाने भगवान भी नहीं सुनता हैं,
वो पथराई आँखों से आज भी हर जगह अपने बच्चों के निशान खोजती हैं.

बच्चे जब तक दर्द समझे , वो बिछुरन की आदी हो जाती हैं.
अब उसको कोई दर्द नहीं सालता , वो बैरागी हो जाती हैं.

मत करना भगवान किसी माँ को उसको बच्चों से दूर,ये सजा जीते जी मरने की हैं,
तेरा रूप हैं वो धरती पर , ये सजा हरगिज मंजूर नहीं हैं.

Friday, May 14, 2010

कुछ दिन .........................

कभी हालात ऐसे हो जाते हैं,

शब्द भी बयान करने के लिए छोटे हो जाते हैं,

दिमाग भी कुछ सोचने के लिए मना कर देता हैं,
दुनिया भी कुछ परायी सी लगने लगती हैं,

सब कुछ उलझा उलझा सा,
ज़िन्दगी अपनी होकर भी अपनी नहीं लगने लगती हैं.

तब कुछ इस तरह से दिल से आवाज़ आती हैं,
ऐ खुदा, क्यूँ मेरे साथ ये सब हो रहा हैं,

खुदा जवाब देता हैं - सब्र कर,
तेरे जो अच्छे दिन आने वाले हैं,

उसकी अहमियत को समझाने को कुछ दिन ऐसे भी बिताने पड़ेगे,
समय हमेशा एक सा नहीं रहता,
बस उसी को समझाने के लिए ये वक़्त भी जरुरी हैं.

Thursday, May 6, 2010

One thought which keeps me positive everyday...............

"ज़िन्दगी में महत्वपूर्ण यह नहीं हैं की आज हम कहाँ पर खड़े हैं, महत्वपूर्ण यह हैं की हमारे आज के प्रयास हमें किस दिशा में ले जा रहें हैं क्यूंकि हमारा आज , हमारे बीते हुए कल की देन हैं जो हम अब बदल नहीं सकते और हमारा आने वाला कल हमारे आज की देन होगा. आज से ही जागिये और आने वाले कल के बारे में सोचिये की हमें कहाँ जाना हैं और हमारी मंजिल क्या हैं? "

"This is not very much important that where we are today , but this is very important that in which direction our today's efforts are aligning because our tommorrow will be the result of our today and our today is the result of our yesterday. Forget what happened in the past, awake today and start doing the things to make your tommorrow."

Monday, April 26, 2010

मैं और मेरी ज़िन्दगी .....................

ज़िन्दगी और मेरी कहासुनी चलती रहती हैं,
कभी वो मुझे कोसती हैं , कभी में उसको.
कभी वो मुझे शाबाशी देती हैं, कभी मैं उसको.
लुकाछिप्पी  का खेल हम बरसो से खेल रहे हैं.
न वो हारने को तैयार और न मैं.
कभी वो आगे निकल जाती हैं तो कभी मैं.
मिल ही जाते हैं थोडा दूर चल कर हम फिर,
कभी वो मेरा मुहं चिडाती हैं  और कभी मैं.
दोनों को पता हैं साथ साथ ही चलना हैं हमें,
एक के बिना दूसरे का गुजारा नहीं हैं,
फिर भी एहमियत समझाने को ,
कभी वो आगे निकल जाती हैं कभी मैं.
दोनों की मंजिल एक हैं फिर भी,
कभी वो जल्दबाजी दिखाती हैं और कभी मैं.
थक कर जब हम चूर हो जाते हैं कभी,
कभी वो मुझे संभालती हैं और कभी मैं.
इसी तरह से फिसलता हैं वक़्त हमारी मुट्ठी से,
कभी वो बेबसी से मेरा मूंह ताकती और कभी मैं.

Wednesday, April 21, 2010

कारवां का सफ़र बड़ा लम्बा हैं..............

कौन कहता हैं दुनिया बुरी हो गयी हैं, अब भी इंसानियत बची हुई हैं.


हर गली चौराहे पर इमान का झंडा बुलंद किये कुछ लोग अब भी  खड़े हैं .

थोडा भ्रस्टाचार , थोडा बैमानी , थोड़ी घूसखोरी और थोडा अत्याचार हैं तो क्या हुआ , अब भी इस दुनिया में बहुत ईमानदार बचे हुए हैं.

माना अब रावणों की तादाद ज्यादा हो गयी हैं , कुम्भ्कर्नो की रात लम्बी हो गयी हैं .
मगर अब भी कुछ राम बचे हुए हैं , धनुष बाण लिए खड़े हैं .

रिश्ते - नाते बैमानी हो गए हैं , हर तरफ स्वार्थ का राज हो गया हैं.
मगर अब भी कुछ भरत चुपचाप जी रहे  हैं.

माना की हर तरफ घुप्प अँधेरा छाया हैं , रौशनी की दूर दूर तक उम्मीद नहीं हैं .
मगर अब भी कुछ लोग दीये लेकर हर तरफ बिखरे पड़े हैं .

ना उम्मीदी का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ हैं . बस थोडा अँधेरा घना हो गया हैं .
बस अब जल्द ही ये अँधेरा छटने वाला हैं . सुबह की पहली किरण छटा बिखेरने को तैयार हैं.

मशाल थामे कुछ लोग आगे बड़ चले हैं, ये अँधेरा कटने वाला हैं .
आ जाओ की अब तुम्हारा साथ चाहिए क्यूंकि इस कारवां का सफ़र बड़ा लम्बा हैं .

Wednesday, April 14, 2010

सांझ ....................


जन्म लिया एक घर में, उसको खुशियों से आबाद किया.

बचपन गुजरा जैसे तैसे , घरवालो को परेशान न किया.

सोचा आगे सब कुछ अच्छा होगा, फिर एक दिन अपना मायका छोड़ा.


पहुची एक नए जहाँ में, सबको फिर अपना समझा.

छोड़ दिए सब अपने सपने , किसी के सपनो को अपना लिया.

कब बीत गयी जवानी , पता भी नहीं चला.

जिंदगी की उलझनों में खुद को भुला दिया.

अपना परिवार , अपने बच्चे - जीवन इन सब पर कुर्बान कर दिया.

जीवन कब बीत गया, पता भी न चला.

जिनके लिए जीवन अर्पण किया, एक एक कर सब छोड़ चले .

जीवन के इस साँझ में मुझे अकेला कर गए.

आज उस डूबते सूरज को निहारती हूँ,  ज़िन्दगी की साँझ में कितनी अकेली रह गयी हूँ.

Tuesday, April 13, 2010

पहाड़ो की सैर ...... ( Let us Visit the Hills)

वो सामने हिमालय हैं, दूर दूर तक बिखरा नीला आसमान.

बादलो से अठखेलिया करते ऊँचे पर्वत, फल फूलो से लदे ये उपवन.

कल कल करती बहती नदिया और हरे भरे पेड़ो से भरे ये जंगल.

झरनों से बहता निर्मल पानी , अमृत जैसा इनका जल.

बहती ठंडी हवा देखो, करती मन को कितना शीतल.

बाहे खोले बुला रहा ये सुन्दर मंजर, बिना तुम्हारे ये सब बेकार.

माना की तुम बहुत व्यस्त हो, कुछ कमाने के चक्कर में मस्त हो.

फिर भी फुर्सत के कुछ पल तो निकालो , आकर मेरी गोद में खेलो.

फिर कहोगे " अगर स्वर्ग हैं धरती पर, तो हैं वो यही पर."

 
( यह कविता समप्रित हैं उन सब पहाड़ी निवासियों को जो रोज़ी रोटी के चक्कर में शहरो में बसे हैं और उन लोगो को जो पहाड़ो से प्रेम करते हैं )

Monday, April 12, 2010

अगले जन्म मोहे बी पी ओ की नौकरी मत दीजियो..........

घर वाले जब सोते हैं, मेरी सुबह तब होती हैं.
रात के अँधेरे में मेरी शिफ्ट शुरू होती हैं.
उल्लुओ की तरह रात रात बहर जागकर, हालत मेरी खस्ता हो गयी हैं.
अपने घर पर ही में पराया हो गया हूँ, पड़ोसियों के लिए में गुमशुदा हो गया हूँ.
फ़ोन पर बात करते करते अब कान भी घरघराने लग गए हैं.
अंग्रेजो से बात करते करते हिंदी भी भूल गए हूँ.
क्या करू ! इस नौकरी का, मम्मी की रोटी में भी बर्गर की खुशबू ढूँढने लगा हूँ.
अर्ज़ सुन ले ! भगवन मेरी - अगले जन्म इन बी पी ओ से छुटकारा दिला देना.
दिन की किसी नौकरी का मेरे लिए इंतज़ाम कर देना.

( यह कविता समप्रित हैं सभी लोगो को जो कॉल सेंटर में नौकरी करते हैं)

Friday, April 9, 2010

बेबसी ........

तंग आकर एक दिन उसने इस्तीफा लिख ही लिया,
चदने लगा ऑफिस की सीडिया ,
तब उसे अपने बच्चे की कही बात का ख्याल आया, "पापा मुझे इस महीने साइकिल दिला देना."
और माँ की कही बात याद आई, "बेटा ! तू ही सहारा हैं अब घर का" !
पत्नी का वो ताना याद आया, " कब खरीद के दोगे एक वाशिंग मशीन ?"
फिर बहन की शादी का ख्याल आया.
उठे कदम फिर रुक गए, ऊपर बढते कदम ठिटक गए !
वो वापस अपनी कुर्सी पे आ गया, फाईल्स  की ढेर में फिर खो गया.

Thursday, April 8, 2010

छोड़ आये हम वो गलियाँ ...............................

आँगन छूटा, गाँव छूटा , पीछे छूटा वो परिवेश !
छूट गयी बचपन की वो गलियाँ, जो गूंजता था हर रोज़ !
पीछे रह गयी सब वो यादों,  जब हम चल दिए थे इक रोज़ !
बेफिक्री के वो दिन अब कितने आते याद,
काश ! फिर लौट आते वो दिन जहाँ सिर्फ हमारा था राज !
चंद कागज़ के टुकडो को इकट्ठा करने के लिए,
क्या क्या खो दिया हमने आज आता हैं याद !
कहती हैं वो गलियाँ आज, आ जाओ मेरे प्यारो ,
फिर से करो हमें आबाद !
हम नहीं बदले आज भी, तुम कितने बदल गए हो आज !

Monday, March 29, 2010

आओ नयी शुरुवात करे.....................

कितनी बार दिल ने चाहा बदल लेते हैं चलो राह, उठे कदम न जाने कितनी बार थम गए !
शायद इसलिए हम जहा थे वही रह गए,हमारे साथी जिन्होंने हिम्मत की- कहाँ थे कहाँ पहुच गए.

शिकवा उनकी तरक्की से नहीं हैं, हम दिल से काम लिए और वो दिमाग की कहे सुनते गए.
उन्होंने हर अवसर को पहचाना , हम अवसर गवाते बदते रहें.

अब भी दिमाग कहता हैं, वक़्त अभी गुजरा नहीं .
जो बीत गया उसको भुला, चुन अभी भी अपनी राह.

और सरपट उस पर भाग,राह पकड़ ही लेगा एक दिन,
उस दिन होगा तुझको खुद पर नाज़.

हम सबकी यही कहानी हैं,आपबीती फिर सुनानी हैं.
क्यूँ न हम मिसाल बने, अपनी नज़रों में ही महान बने.

खुद फक्र कर सके अपनी ज़िन्दगी पर, अपनी कहानी खुद क्यूँ न लिखे.
आओ की अब भी वक़्त ठहरा हैं हमारे लिए, एक नयी शुरुवात करे.

भ्रमो के मायाजाल को काटे , खुद पर यकीन करे.
चुने अपनी राह वही , जो खुद को लगे सबसे सही.

Friday, March 26, 2010

रुकना नहीं , झुकना नहीं.

रुकना नहीं , झुकना नहीं.
मुड़ना नहीं, थकना नहीं.
रख अर्जुन सी नज़र लक्ष्य पर ,
और तुझे कुछ देखना नहीं .

डिगाए तुझे कोई कितना ,
रोड़े कितने अटकाए कोई .
रुख मोड़ना हैं हवायो का तुझे,
हर बाधा को हंस के सहना हैं तुझे.
हर मुस्किल को ठोकर मारता चल ,
लक्ष्य की तरफ कदम बदाता चल.

कोई रोके , कोई टोके ,
कोई चाहे कुछ भी कहे .
अपने दिल को समझाता चल,
अपनी धून पर बस चले चल चला चल.
कोई तेरा साथ न दे ,
कोई परवाह मत कर ,
अपने होसले को तलवार बना ,
हर मुश्किल को काटता चल.

यही दुनिया तुझे सलाम करेगी ,
जब तू मंजिल को पायेगा .
झुकेगी तेरी आगे ये दुनिया,
अपनी मेहनत का फल तू पायेगा.

Monday, March 22, 2010

रफ्ता रफ्ता कट रही ज़िन्दगी....

रफ्ता रफ्ता कट रही ज़िन्दगी,
कुछ रुलाती,कुछ हंसाती ज़िन्दगी.
धीरे धीरे मंजिल की तरफ बढ रही ज़िन्दगी,
कितनो को पीछे छोड़ते हुए,
कितने नए लोगो को अपना बनाती हुई,
रफ्ता रफ्ता कट रही ज़िन्दगी,
एक मंजिल को पा लिया तो,
दूसरी मंजिल ले कर तैयार खड़ी ज़िन्दगी,
हर रोज़ कही न कही फ़साये रखती हैं ज़िन्दगी.
जितना इसे समझो उतना उलझाती हैं ज़िन्दगी,
रफ्ता रफ्ता कट रही हैं ज़िन्दगी.

Wednesday, March 17, 2010

बड़ी उलझन हैं कैसे सुलझाऊ !

बड़ी उलझन हैं कैसे सुलझाऊ !
मन को क्या कह के समझाऊ !
सोचा क्या था ज़िन्दगी में !
हो क्या रहा हैं कैसे समझाऊ !
नौकरी से मिले कुछ फुरसत तो !
कही एकांत में जाकर कुछ सोचु !
बचपन बीते बरसो बीते गए !
जवानी के दिन भी बस यु ही कट रहे !
कल के अच्छे के चक्कर में,
बरसो न जाने कहा खो गए.
चाहकर भी अब वो दिन नहीं ला सकता ,
फिर दिल को ही समझाता हूँ !
जो हैं अभी तेरे पास उसी में खुश हो ले,
कल की फिक्र छोड़, बीते कल कI चोला उतार !
बस आज को जी ले.

Thursday, February 25, 2010

Every day is a gifted day............

When I do wake up in the morning,
I thanks to god to give me another day,
A new day for my life,
A new day to fulfill my dreams,
A new day to do a lot,
A new day to live more,
One more day to realize me,
I am the special,
I am his child.
………..When the day passed,
I again thanks to GOD,
For making my day,
For giving me experience,
For making me more wise,
For learning some good things,

How many days I had passed,
I have grown as a man,
But I always pray to GOD,
For making my each day,
This will keep me alive,
Every day and each day.

Friday, February 5, 2010

ज़िन्दगी को एक मिसाल बना...........

यूं तो बीत ही जाएगी ज़िन्दगी सबको पता हैं,
मगर फिर तेरे और औरो में अंतर क्या रह गया !
ज़िन्दगी जब मांगेगी हिसाब किताब कभी,
कुछ तो बताने लायक रहे तेरे पास.
कुछ न कर पाने का एहसास तब बहुत सताएगा,
ज़िन्दगी का ये अनमोल उपहार यूं ही व्यर्थ चला जायेगा.
कुछ तो कर के जा अभी भी वक्त ठहरा हैं तेरे लिए,
उम्र के किसी भी पड़ाव पर खड़ा हैं भले तू,
अपने सपनो को फिर से हवा लगा !
जो करने की तमन्ना दम तोड़ गयी सीने में,
उनको फिर पंख लगा.
मत सोच दुनिया क्या सोचेगी , लोग क्या कहेगे ?
अपनी ज़िन्दगी को एक मिसाल बना.

Thursday, January 21, 2010

मेरे तीन दशक ............

हिमालय की गोद में जन्मा, ऊँचे ऊँचे पहाड़ो के नीचे पला ,
ठंडी हवा के झोंके के अहसास के बीच , बेफिक्र मेरा बचपन गुजरा !
पढाई की खातिर फिर घर छोड़ा , घर से अलग हुआ ज़िन्दगी बनाने के खातिर,
फिर हमेशा से एक अलगाव सा रहा.
पढाई खत्म की एक बार फिर से लगा, फिर से बचपन जीयूँगा अपने गाँव में !
मगर भविष्य की खातिर शहर आना हुआ.
इन कंक्रीट के जंगलो से पाला पड़ा तो , समझ मे आ गया !
ज़िन्दगी के मायने जो सीखे थे कभी मम्मी की कहानियो में,
कथायो और हकीकत में फर्क समझ मे आ गया.
अब ज़िन्दगी की हकीकत ये हैं , न शहर के रहे और न गाँव के हम.
समझ नहीं आता क्यूँ भाग रहे हैं लोग यहाँ, सुकून का एक फुरसत कहाँ.
हम भी लग गए हैं भीड़ के पीछे , आगे सब धुंधला -धुंधला सा !
कहते तो हैं ज़िन्दगी बनती हैं इस शहर में, मगर ज़िन्दगी हैं कहाँ.
इसी पशोपेश में कट रही हैं ज़िन्दगी ,बस यही हैं तीन दशक की मेरी कहानी.

Tuesday, January 19, 2010

क्या लिखूं..................

कवि नहीं हूँ जो विचारो के सागर में गोते लगा कर,
कल्पनाओ में उड़ान भर कर,
शब्दों की माला पिरोउ ,
लेखक नहीं हूँ, जो शब्दों का मकडजाल बुनू.
आम आदमी हूँ सीमित शब्दकोष से खेलता हूँ,
जब भी लिखने बैठता हूँ,
दिमाग सवाल करता हैं - क्या लिखूं.
महंगाई और बेरोज़गारी ने बुरा हाल किया हैं,
भ्रस्टाचार से सारा जग बेहाल हैं,
रिश्तो के मायने सारे बदल गए हैं,
दोस्ती सिर्फ मतलब तक सिमट गयी हैं.
नौकरी की उलझन और दो जून की रोटी में दुनिया उलझ सी गयी हैं.
समय की कमी सबको पास हो गयी हैं,
दो चार मीट्ठे बोल किसी से सुनने के लिए,
अब पैसे देकर महफ़िल सजाने की रियात हो गयी हैं.
मजबूरी का फायदा दुनिया उठाने में लगी हैं,
आदमी को आदमी से शिकायत होने लगी हैं.
ऐसे हालत में कलम भी साथ छोड़ देती हैं,
क्या लिखू , पढने वाले कहाँ हैं?
सारे लोग तो व्यस्त हैं,
फिर लिख कर क्या करू ?

Tuesday, January 5, 2010

चल पड़े हम...........

चल पड़े हम ज़िन्दगी की राहों में, अब जो भी होगा देख लेंगे.
कल क्या होगा इसको पीछे छोड़ के,बस आज को जीने के लिए.
कल का कोई अफ़सोस नहीं, कल की कोई परवाह नहीं .
आज जो हैं बस उसी को जीने के लिए.
न किसी से कोई शिकवा हैं अब, मिटा के सबसे दुश्मनी .
चल पड़े हैं हम ज़िन्दगी की राहों में,बस ज़िन्दगी को जीने के लिए.
कोई रोके , कोई टोके अब कोई परवाह नहीं, निकल पड़े हैं अपनी मन की करने .
खुद को जो अच्छा लगे बस उसी को करने के लिए.
खुद के लिए मुकाम बनाने के लिए, चिंतायों की चंगुल से आज़ाद होके .
निकल पड़े हैं ज़िन्दगी को अपना बनाने के लिए.
राहों को खुद तलाशने के लिए, मंजिलो पर अपने निशान छोड़ने के लिए.
ज़िन्दगी की राहों में खुद अपना नाम लिखने के लिए.
कल क्या होगा इसको पीछे छोड़ के,बस आज को जीने के लिए.