Sunday, October 28, 2018

वास्तविकता


अब बस  इतना ही ज़िंदा है हम ,
की सिर्फ अपनी फिक्र कर सके ,
दुसरो की चिंता वो खुद करे ,
उनसे कोई लेना देना क्यों रखे हम।

ये मानव जीवन का उत्थान है या पतन ,
आधुनिकता के नाम पर भौंडापन ,
किसी का दिल अब दूसरे के लिए नहीं पसीजता ,
अपने काम से काम रखो - बार बार कहता है मन।

भीड़ में भी अकेला सा हो गया है ,
सहमा सहमा और डर से किस कदर मन ,
बात बात में नाक चढ़ रही है ,
कितना स्वार्थी हो गया है जीवन।

हर चीज  समेटने को आतुर ,
भाग रहा हर समय तन मन ,
आँखे उनींदी सी , बैचैन मस्तिष्क
थका हुआ शरीर , सिसकियाँ ले रहा जीवन।

भरोसा सब से उठ रहा ,
नाते -रिश्ते बोझ लगने लगे ,
तिलिस्मी सी दुनिया में ,
हम कैद होने लगे।

साँसे अब भी ले रहा है जीवन ,
हर सांस अब बनावटी सी क्यों लगे ,
कुछ तो घुल गया है हवाओ में ,
हर वक्त  घुटन में जीने क्यों लगे ?

वक्त अभी है ठहरा ,
कह रहा - चेत सके तो चेत ले ,
सदियाँ गवाह है ,

धरती वही रही , हमारेकर्म” सभ्यताएँ ले डूबे।

चित्र साभार - गूगल 

Tuesday, October 23, 2018

जरुरत



ज़िन्दगी वादा है तुझसे ,
ऐसा जियूँगा तुझे ,
की तू भी रश्क करेगी ,
जिस हाल में भी रखेगी तू ,
हर हाल में मुस्कराता मिलूँगा मैं।  

ले ले इम्तेहान कई ,
गुरेज नहीं अब कोई भी , 
एक ही धागे से लिपटे है हम दोनों ,
तेरी उठापटक से अनजान नहीं हूँ ,
बस तेरा मंतव्य समझने लगा हूँ मैं।   

मुझे तेरी जरुरत , 
तू भी मुझबिन अधूरी सी ,
चल " मैं " से "हम " हो जाते है , 
समाहित हो जाते है इस कदर ,
न तू कभी अलग दिखे और न मैं।  

Wednesday, October 17, 2018

बड़ा सवाल ?

ईमान , जमीर , सच्चाई , ईमानदारी 
किस जमाने की बात करते हो ?
है कोई अब समझने वाला इनकी कीमत , 
क्यों बेकार की बात करते हो।  

सब कुछ तो गिरवी रख दिया हमने अब ,
इस अंधाधुंध दौड़ में ,
तरक्की की खातिर , 
कब से नाता तोड़ लिया है।    

झूठ , स्वार्थ , लालच , दोगलापन 
अब इस नए ज़माने के गुण है , 
आगे बढ़ने के लिए , 
यही अब जरुरी है।  

मत पढ़ाओ किताबी बातें अब , 
नए ज्ञान के अब नए शिखर है , 
पुराने जीवन मूल्यों की अब , 
किसको यहाँ क़द्र है ?

रिश्ते सिमट गए थैली में , 
संस्कारो की नित नयी होली है , 
दुसरो की भावनाओ से खेलने की , 
आयी एक नयी बीमारी है।  

चल रहे है जो अब भी उसूलो से , 
उनको हाशिये में धकेलने की पुरजोर तैयारी है , 
इक्कसवी सदी में देखो , 
धक्कामुक्की का खेल जारी है।  

जीवन की बुनियाद दरक रही , 
अटालिकाएँ बनना जारी है ,
खोखली दीवारों पर , 
दिखाऊ  और चमकदार रंगरोगन जारी है।  

है अभी भी कुछ लोग ,
जो जीवन का मर्म समझते है , 
लगे हुए है चुपचाप अपना , 
बाकी लोग उन्हें पुरातन समझते है।  

टिका है बस उन्ही के कंधो पर,
ये भार है , 
कब तो वो भी ढोयेंगे , 
ये बड़ा सवाल है। 

Friday, October 12, 2018

कश्मकश


गुजर रही थी ज़िन्दगी सुकून से, 
ख्वाईशो ने लफड़े कर दिए , 
उम्र गुजरती रही , 
और ये बढ़ते रहे।  

न मिला फिर चैन-ओ -सुकून ,
बस भागते रहे , 
इस भागमभाग में , 
दिन बीतते रहे।  

दिल ने कई बार टोका , 
दिमाग ने हामी न भरी , 
दोनों की कश्मकश में , 
हम पीसते रह गए।  

कुछ अदद जरूरते ही तो थी हमारी , 
उनसे ऊपर ऐशो आराम जुटाने में लग गए ,
लगी ऐसी लत की , 
ऐश और आराम दोनों भूल गए।  

ज़िन्दगी गाहे बगाहे चेताती रही ,
हम अनुसना कर आगे बढ़ते रहे , 
अच्छे "कल " के इन्तजार में , 
हम "आज " को खोते रहे।  

सुकून की तलाश में शुरू किया था जो सफर , 
तनाव में हर वक्त रहने लगे , 
एक किनारे से चले थे हम , 
दूसरे किनारे पर न जाने कैसे पहुँच गए।  

Friday, October 5, 2018

नमन


सूक्ष्म से विशाल तक ,
न्यून से अथाह तक ,
पातल  से अंतरिक्ष तक ,
मुझ से हम तक , 
आकार से निराकार तक 
सर्वव्याप्त , सर्वत्र, स्वच्छंद
तेरा कैसे गुणगान करू ,
कैसे तेरा एहतेराम करू ,
इक इक साँस में समाया, 
कैसे तेरा धन्यवाद करूँ।  
रोम रोम में तेरी कृपा , 
भ्रम में जीता हूँ कि ,
अपने बलबूते जिंदगी जीता हूँ ,
कठपुतली तेरे हाथ की , 
जैसे तू नचाता , नाचता हूँ।  

जीवन के इस रंगमंच पर , 
किरदार तू हमसे निभवा रहा , 
श्रेष्ठ निर्देशक बन ,
नित नए दृश्य गढ़ रहा , 
आदि और अंत तू ही जानता है , 
हम तो निमित किरदार है तेरे नाटक के , 
जीवन हर पल तू रच रहा।  

जीवन तेरी थाती है, 
तेरा ही अधिकार है ,
क्या अतिकार और क्या प्रतिकार , 
तेरे इशारो पर नाच रहा ये सारा संसार , 
मैं मनुज तुच्छ सा , 
झूठा मेरा अहंकार , 
"मैं " के वहम को , 
तू पल में कर सकता है संहार ,
नियति तेरे हाथो में , 
कर्मो पर बस मेरा अधिकार ,
नतमस्तक हूँ , शीश झुकाता हूँ ,
हतप्रभ हूँ देखकर ,
हर पल तेरे नए चमत्कार।  

तुझ पर आस है , 
तू ही विश्वास है , 
जीवन नैया का , 
तू ही खेवनहार है ,
किरदार जो तूने दिया ,
सब उसे निभा रहे , 
जीवन के इस रंगमंच में ,
तमाशे रोज़ तेरे इशारे पर हो रहे , 
जीवन तुझसे , तुझपर ही ख़त्म ,
"सत्य" एक तू , बाकि सब भ्रम ,
तेरी बनायीं "माया " में सब उलझ रहे ,
रोज़ ज़िन्दगी के नए मायने गढ़ रहे ,
हुकूमत तेरी , सत्ता तेरी 
बिना तेरी मर्ज़ी पत्ता तक न हिले।

शीश झुका , मन में स्मरण 
हे ! जगत के स्वामी 
तुझे कोटि कोटि नमन ,
भटके कभी कर्मपथ पर अगर ,
राह फिर सही दिखाना भगवन।  

Wednesday, October 3, 2018

इश्क का चक्रव्यूह (हास्य )



किसी को देखने की चाहत दिल में मचलने लगे , 
यूँ ही अचानक से मुस्कराहट होंठो पर तैरने लगे , 
आँखे उनके दीदार को तरसने लगे , 
इश्क चक्रव्यूह के पहले द्वार पर आप दस्तक देने लगे।  

उनसे मिलने को जब दिल करने लगे , 
बातें उनकी जब मीठी लगे , 
आँखों में अब उनकी तस्वीर दिखने लगे , 
चक्रव्यूह के दूसरे दरवाजे तक आप पहुँचने लगे ।  

दिल में जब हरारत होने लगे , 
बिना बात किये दिल न भरे , 
रात को नींद कम , सपने ज्यादा आने लगे ,
इश्क चक्रव्यूह का तीसरा दरवाजा भी आप भेद गए।  

हर पल उनका साथ जब भाने लगे , 
उनके बगैर अब ज़िन्दगी बेमानी लगे , 
राते खयालो में गुजरने लगे  , 
चौथा दरवाजा भी इश्क का आप तोड़ चले।  

न दिन को सुकून , न रात को चैन मिले ,
हर वक्त उनका ही ख्याल रहे , 
भीड़ में भी उनका ही चेहरा ढूंढने लगे , 
पाँचवा दरवाजा खुद ब खुद खुलने लगे ।  

उनका हर सपना जब अपना लगे , 
प्यार भरे नग्मे अब खुद की कहानी कहने लगे , 
उनके आंसुओ से खुद की आँखों की कोरे गीली होने लगे ,
समझिये , इश्क के अंतिम पायदान पर आप पहुँच गए।  

जब ज़िन्दगी में उनके बिना कुछ भी न भाने लगे , 
उनकी हर ज़िद्द जब आपको अच्छी लगने लगे , 
तमाम और रिश्ते जब आपको दोयम लगने लगे , 
बधाई हो , इश्क चक्रव्यूह के "केंद्र " में पहुँच गए ।

लोकतंत्र



घोषणा तो होती है ,
जनता की सरकार बनेगी ,
मगर ,
बनने के बाद ,
जनता से ,
सरकार से  क्यों अलग हो जाती है ?

कुछ तो झोल है ,
उस कुर्सी में ,
बैठते ही ,
नीयत क्यों बदल जाती है ?

वो वादे ,
वो इरादे ,
न जाने कहाँ काफूर हो जाते है ,
जनता की सरकार ,
फिर जनता को ही क्यों गरियाते है ?

कुछ तो खामी है ,
लोकतंत्र में ,
जरूर कही कोई छुपा मंत्र है ,
चोर दरवाजे से ,
इतने सारे गिरगिट कैसे घुस जाते है ?

हम अपना देखते है ,
तुम अपना देख लो ,
इस देखा देखि में ,
पांच साल निकल जाते है।